।। अरविंद मोहन।।
(अर्थशास्त्री)
बीते कुछ समय से भारतीय बाजार की सेहत अच्छी नहीं रही है. ऐसे समय, जब देश में आम चुनाव होनेवाले हों, बाजार की सेहत में सुधार की गुंजाइश कम ही दिखती है. राजनीतिक तौर पर स्थिर सरकारों से बाजार में तेजी आती है. हाल ही में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट, 2013 में कहा है कि एक नयी स्थिर सरकार का गठन अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होगा, क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता से निवेशकों का विश्वास और कम होगा.
वित्तीय प्रणाली को लेकर पहले ही निवेशकों का भरोसा कम हो चुका है. पिछले पांच साल से भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने कई चुनौतियां रही हैं. मौजूदा समय में निवेशक नीतियों के मामले में स्थायित्व चाहते हैं. पिछले साल अर्थव्यवस्था के समक्ष मुद्रास्फीति, रुपये का अवमूल्यन और बैंकों का एनपीए बढ़ना काफी परेशान करनेवाला कारक रहा. अभी भी महंगाई के मोरचे पर सरकार के उपाय नाकाफी साबित हो रहे हैं. महंगाई बढ़ने के साथ ही बचत दर में कमी अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी बात नहीं है. महंगाई के कारण आम आदमी से लेकर किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.
सामान्य तौर पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए हथियार के तौर पर मौद्रिक नीति का इस्तेमाल करता है. बाजार की चाल पर कैश रिजर्व रेश्यो (सीआरआर) या नकद आरक्षी अनुपात का भी व्यापक असर पड़ता है. पिछले साल रुपये में आयी गिरावट से निवेशकों का भरोसा भारतीय बाजार के प्रति डगमगा गया है. रुपये के अवमूल्यन से शेयर बाजार पर भी प्रतिकूल असर पड़ा. पांच साल पहले अमेरिका के बड़े वित्तीय संस्थानों के धराशायी होने से उत्पन्न हुई आर्थिक मंदी का भारत ने बखूबी सामना किया था, क्योंकि उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की मूलभूत स्थिति काफी मजबूत थी. साथ ही भारतीय वित्तीय संस्थानों की स्थिति भी बेहद मजबूत थी. साथ ही सरकार ने मंदी से निबटने के लिए मौद्रिक और वित्तीय नीतियों के संदर्भ में जरूरी कदम उठाये. इसके अलावा वैश्विक आर्थिक संकट को देखते हुए घरेलू संसाधनों का उपयोग कर विकास की गति को बनाये रखने पर ध्यान केंद्रित किया. रिजर्व बैंक ने तत्काल कदम उठाते हुए ब्याज दरों में कटौती की और बैंकों को लगभग 2.5 लाख रुपये दिये ताकि बाजार में तरलता बनी रहे. सरकार के इन फैसलों से उद्योग जगत में भरोसा पैदा हुआ. भारतीय वित्तीय क्षेत्र के लिए सख्त कानून, बेहतर बैंकिंग व्यवस्था, उच्च बचत दर और विदेशी मुद्रा भंडार अधिक होने से मंदी का व्यापक असर नहीं पड़ा.
वैश्विक मंदी के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल और खाद्य पदार्थो की कीमतें कम हो गयीं और इससे महंगाई नियंत्रित करने में भी सहायता मिली. लेकिन पांच सालों में हालात बिल्कुल बदल गये लगते हैं. मौजूदा समय में न सिर्फ निवेश कम हुआ है बल्कि आर्थिक विकास दर भी काफी कम हो गयी है. एक ओर बाजार की लचर होती स्थिति और दूसरी ओर सरकार की जड़ताजनित नाकामी के कारण अर्थव्यवस्था की हालत लगातार खराब होती गयी.
यही नहीं पिछले आठ सालों में सरकार का खर्च, आय के मुकाबले कई गुना अधिक बढ़ गया. इससे राजस्व घाटा काफी बढ़ गया. बढ़े खर्च की भरपायी के लिए सरकार को निवेश को बढ़ावा देना चाहिए था, जो नहीं हुआ. कई परियोजनाएं भूमि विवाद और अदालती हस्तक्षेप के कारण परवान नहीं चढ़ पायीं. इससे पूंजी के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हुई. अर्थव्यवस्था को गति देने के लिहाज से कई महत्वपूर्ण विधेयक 2005 से ही लंबित पड़े हैं.
अर्थव्यवस्था के साधारण से नियम के हिसाब से देखें, तो विकास दर तेज करने के लिए निवेश को बढ़ाना होगा और जैसे ही निवेश बढ़ेगा, नौ फीसदी से अधिक की विकास दर हासिल करना आसान हो जायेगा. लेकिन, इसके लिए सरकार को लोक-लुभावन घोषणाएं करने की बजाय सख्त आर्थिक फैसले लेने होंगे. यह समय ऐसे ही फैसलों का है. क्योंकि, अगर विकास की रफ्तार सुस्त पड़ी तो इन सामाजिक योजनाओं के लिए फंड कहां से आयेगा.
गरीबी मिटाने के लिए विकास जरूरी है. अगर भारत दो अंकों की विकास दर हासिल कर ले, तो गरीबी मिटाने में भी सहायता मिलेगी. साथ ही बढ़ते चालू बचत घाटे को देखते हुए सब्सिडी को कम करने की कोशिश भी की जानी चाहिए. लेकिन मौजूदा राजनीतिक हालात और आगामी आम चुनाव को देखते हुए मनमोहन सिंह सरकार से किसी बड़े और सख्त फैसले की उम्मीद नहीं की जा सकती है. लेकिन, यह समझना भी जरूरी है कि नयी सरकार के आते ही किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती. नयी सरकार के लिए निवेशकों का भरोसा जीतना और बाजार को पटरी पर लाना एक बड़ी चुनौती होगी. निवेशकों का भरोसा हासिल करने के लिए आर्थिक सुधार की गति को तेज करने के साथ ही विकास परियोजनाओं की गति को तेज करना होगा.
नये साल में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मिल रहे सुधार के संकेतों से भी बाजार में रौनक लौटने की उम्मीद बढ़ी है. रिजर्व बैंक के हालिया फैसलों से भी निवेशकों की भारतीय बाजार के प्रति सोच सकारात्मक हुई है. आर्थिक विकास को रफ्तार देने के लिए सरकार ने लंबित कई परियोजनाओं को मंजूरी दी है. इसका असर बाजार पर दिख रहा है. उम्मीद है कि 2014 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा साल साबित होगा.