एक बड़े शहर का भीड़ भरा चौराहा. सुबह का नौ बजा है. ठसाठस भरी बस देखते ही पचास बरस की उस भद्र महिला कर्मचारी का दम घुटता है. उसके चेहरे की झुर्रियों से बहता चिपचिपा पसीना संघर्षपूर्ण जीवन की दास्तां बयान कर रहा है. आॅटो के लिए खासी मारा-मारी है.
रोजाना वह बहुत देर से उस चौराहे पर खड़ी रहती है. आज भी बामुश्किल से एक आॅटो में जगह मिली. वह ऑटो सीधा ऑफिस पहुंचायेगा. अक्सर दो-तीन बार बदलना पड़ता है. महिला कर्मचारी को बहुत खुशी हुई, जैसे उसने कोई बड़ा किला फतेह कर लिया हो. आज वह वक्त पर आॅफिस पहुंचेगी और फिर शाम तक वह ढेर सारी फाइलों का हिस्सा बनी रहेगी.
शाम पांच बजे आॅफिस बंद होता है. उस महिला को अपने जैसी सैकड़ों महिलाओं के साथ आॅटो के लिए सुबह वाली जद्दोजहद फिर करनी है. आज वह सुबह जैसी लकी नहीं है. खासी धक्का-मुक्की और दो बार ऑटो बदलने के बाद वह पॉलीटेक्निक चौराहे पर पहुंची. उसकी सांस फूल रही है. शिद्दत की गर्मी और उमस है. यहां से मुंशी पुलिया महज दो किलोमीटर की दूरी पर है. लेकिन यहां भी वही ऑटो के पीछे भागना. जैसे-तैसे वह एक आॅटो में जबरदस्ती घुस गयी. बेचारे एक आदमी को नीचे उतरना पड़ा. ऑटो चल पड़ा.
महिला कर्मचारी अपनी कलाई घड़ी पर नजर डालती है. सात बजने को है. वह घर के बारे में सोचती है- राशन-पानी तो पगार मिलते ही भर लिया था. सब्जी वाला द्वारे पर आ जाता है. थोड़ी महंगी देता है तो क्या हुआ? बाजार जाकर अपना टाइम तो नहीं वेस्ट करना पड़ता ना. उसके सपनों की उम्मीदें और उसका गुरूर उसकी दो बेटियां हैं, जो मेडिकल की तैयारी कर रही हैं. कोचिंग से लौटते-लौटते उन्हें आठ बज जाता है. उसका पति परचून की छोटी सी दुकान करता है. दस के बाद टुन्न होकर ही घर आयेगा. तभी… अरे, मुंशीपुलिया आ गया, उसे पता ही नहीं चला. अब यहां से घर बस दस मिनट का पैदल रास्ता.
रात ग्यारह बज गया चौका-बरतन समेटते हुए. उसकी दोनों बेटियां अभी टीवी से चिपकी हुई हैं. वह उन दोनों को डांटती है. कंपीटीशन की तैयारी कब करोगी?
वह थक कर चकनाचूर हो चुकी है. धम्म से बिस्तर पर गिर जाती है. उसे उन सुखद दिनों की याद आती है, जब परिवहन निगम की ‘महिला बस सेवा’ के कारण वक्त, एनर्जी और पैसों की खासी बचत हो जाती थी. मगर घाटा बता कर यह सेवा बंद कर दी गयी. तमाम कल्याणकारी योजनाओं में लाखों-करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाया जाता है, लेकिन महिला सुरक्षा के नाम पर सरकार को घाटा होता है.
वाह रे व्यवस्था! सुबह-शाम बेशुमार बहनें-बेटियां बस-आॅटो के लिए बेतरह भटकती हैं. मर्दों की धक्का मुक्की और उलूल-जुलूल हरकतें सहन करती हैं. मर्दों की सरकार है. औरत की तकलीफ को ये लोग क्या जानें? औरतें तो बस घर के काम-काज करने के लिए होती हैं. महिला सुरक्षा संगटन जाने क्या करते हैं? खुद से किये गये इन तमाम सवालों के जवाब उसे नहीं मिलते हैं. तब वह तय करती है कि वह कल इन सवालों को लेकर मुख्यमंत्री को पत्र लिखेगी. और अगर जरूरत हुई, तो धरना भी देगी.
मगर अगली सुबह उठते ही काम-काज की भागम-भाग भरी जिंदगी में वह रात तक के लिए गुम हो जाती है. बिस्तर पर गिरते ही उसे खुद से किया वादा याद आता है. चलो कल सही. लेकिन अगली सुबह और फिर अगली सुबह यही होगा. सिलसिला चलता रहेगा, वही भूल पर भूल… वह अक्सर भूल जाती है.
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
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