आइआइटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा के एडवांस चरण में मुख्य परीक्षा में सफल करीब दो लाख छात्रों में से 36,566 छात्र अंतिम रूप से चयनित हुए हैं, लेकिन इनमें से 10,575 छात्रों को ही आइआइटी संस्थानों और इंडियन स्कूल ऑफ माइंस में दाखिला मिल सकेगा.
वैश्विक स्तर पर अपनी उत्कृष्ट प्रतिभा और क्षमता के बूते प्रतिष्ठित इन संस्थाओं में सीटें बढ़ाने और नये संस्थान बनाने की मांग हमेशा से की जाती रही है. लेकिन संसाधनों और शिक्षकों की कमी के साथ आइआइटी ‘ब्रांड’ के कमतर होने की चिंताओं के कारण इसके विस्तार की गति धीमी रही है. अभी देश में माइंस स्कूल को जोड़ कर 23 आइआइटी हैं, जिनमें चार इसी साल शुरू हो रहे हैं. तकनीकी मेधा और आकांक्षाओं के बढ़ने के साथ इस संस्था के विस्तार की प्रक्रिया भी जारी रहनी चाहिए, परंतु यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन संस्थानों को समुचित शिक्षक और संसाधन मिल सकें. शिक्षकों की कमी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रति दस छात्र पर एक शिक्षक की उपलब्धता का मानक पूरा नहीं किया जा सका है. अनेक संस्थान अस्थायी परिसरों में कार्यरत हैं और उनमें शैक्षणिक संसाधनों का अभाव है.
आर्थिक स्वायत्तता की कमी भी एक बड़ा अवरोध है. संस्थाओं के बढ़ने से आइआइटी ‘ब्रांड’ के कमजोर होने का तर्क सही नहीं है क्योंकि 2008-09 में शुरू हुई संस्थाएं राष्ट्रीय रैंकिंग में शानदार प्रदर्शन कर रही हैं. इसलिए मुख्य ध्यान संसाधनों की उपलब्धता पर केंद्रित किया जाना चाहिए. यदि मौजूदा संस्थाओं की पूरी क्षमता विकसित हो जाये, तो इनमें सीटों की संख्या 20-25 हजार तक हो सकती है.
बाहर से शिक्षक बुलाने के साथ इन संस्थाओं को अपने यहां बेहतर शोधार्थी तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए जो पीएचडी के बाद आइआइटी में शिक्षण करा सकें. शोध और अनुसंधान पर ध्यान देने से आइआइटी की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी. फिलहाल आइआइटी दिल्ली ही क्यूएस वैश्विक रैंकिंग में दुनिया की शीर्ष 200 संस्थानों में शामिल है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आइआइटी संस्थाओं की संख्या और सीटें बढ़ाने के साथ उनकी गुणवत्ता के निखार के प्रयास भी होंगे, जो इनकी विशिष्टता का आधार है.