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तथाकथित बाबाओं की सत्ता

धर्म की किताबों में विविध भाव-भंगिमाओं के जरिये कहा गया है कि आप जब धर्म की रक्षा करते हैं तभी धर्म भी आपकी रक्षा करता है. ठीक इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र में आप विधि आधारित शासन की जिस सीमा तक रक्षा करते हैं, विधि आधारित शासन भी उसी सीमा तक […]

धर्म की किताबों में विविध भाव-भंगिमाओं के जरिये कहा गया है कि आप जब धर्म की रक्षा करते हैं तभी धर्म भी आपकी रक्षा करता है. ठीक इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र में आप विधि आधारित शासन की जिस सीमा तक रक्षा करते हैं, विधि आधारित शासन भी उसी सीमा तक आपके लोकतंत्र की रक्षा करता है.

मथुरा के जवाहरबाग की हैरान करनेवाली घटना से निकले संकेत साफ हैं कि वहां न तो धर्म की रक्षा हुई और ना ही विधि आधारित शासन का कड़ाई से पालन हुआ. जवाहरबाग में जो खूनी खेल हुआ, असल में वह राजनीति के अपनी मर्यादाओं को त्याग कर स्वार्थ के गले लगने का नतीजा था, जिसकी कीमत आखिरकार पुलिस के चंद जांबाज अफसरों और नगर की शांति-व्यवस्था को भी चुकानी पड़ी.

हो सकता है कि धर्म की रक्षा जैसे पुराने सोच को विधि आधारित शासन की रक्षा जैसे नये सोच के साथ मिलाना आपको ठीक न जान पड़े, लेकिन भारत में किसी घटना के विश्लेषण में ऐसा करना एक तरह से ऐतिहासिक मजबूरी भी है. इस देश में किसी भी चीज का वजूद एकहरा नहीं, यहां महत्व की सारी चीजें परतदार हैं और दोहरा-तिहरा अर्थ देती हैं.

मिसाल के लिए मथुरा को ही लें. कायदे से मथुरा को भी पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मेरठ, मुरादाबाद जैसे संभावनाशील शहरों में गिना जाना चाहिए, जिसे लगातार बढ़ते हुए एक दिन महानगर की सूरत और सीरत अख्तियार करना है. लेकिन, मथुरा एक शहर मात्र नहीं है, वह शहर होने के साथ-साथ कृष्ण की लीलाभूमि यानी एक धर्मस्थली भी है. यह शहर अपने आधुनिक अर्थ में सेक्युलर भावभूमि के साथ विधि आधारित शासन की तलाश करता है. विधि आधारित वह शासन, जो धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर आदमी-आदमी के बीच न तो ऊंच-नीच का बरताव करता है और ना ही इन वजहों से हासिल किसी के विशेषाधिकारों को स्वीकार करता है.

हालांकि, लोक-कल्याणकारी होने का दावा तो धर्म भी करता है, लेकिन लोक-कल्याण क्या है और कैसे हो, आदि जैसे प्रश्नों को वह मठ, महंथ, ईश्वर और धर्म-पुस्तकों के हवाले से सुलझाता है, जहां तर्क की गुंजाइश कम है और अंधभक्त होना एक योग्यता की तरह स्वीकृत है.

तभी तो रामवृक्ष यादव जैसे रंगे सियारों के लिए मथुरा सरीखे दोहरी पहचानवाले शहर में अपने स्वार्थ को जगत-कल्याण बता कर पेश करना और फिर इसी बहाने अंधश्रद्धा से भरे लोगों को अपने पीछे लामबंद कर लेना चुटकी बजाने का खेल है.

जयगुरुदेव कहलानेवाले तथाकथित धर्मगुरु के इस चेले के मन में अपने ‘गुरु’ के समान ही हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति का साम्राज्य खड़ा करने की ललक ही रही होगी, जो उसने स्वाधीन भारत सुभाष सेना नामक अराजक संस्था का गठन कर लोगों को एक रुपये में 40 लीटर डीजल-पेट्रोल देने, राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री जैसे पदों के चुनाव को समाप्त करके राजनीतिक भ्रष्टाचार भगाने, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर वाली मुद्रा चलाने जैसे अतार्किक, मगर लोक-लुभावन नारे दिये और अंधश्रद्धा से आकंठ भरे लोगों की जमात अपने पीछे खड़ा करने में सफलता हासिल कर ली. इस जमात के साथ आते ही उसके पास यह मानने का आधार तैयार हुआ कि इस लोकतंत्र में वह भी जनमत के एक हिस्से का नायक है. रामवृक्ष को नायकत्व सौंपनेवाली इसी जमात ने उसे करीब 250 एकड़ में फैले जवाहरबाग की जमीन पर अनशन के बहाने कब्जा जमाने में मदद दी.

एक बार संपत्ति पर कब्जा जम जाये, और आप सीमित अर्थों में ही सही, लोगों के समूह के बीच नायक रूप में स्थापित हो जायें, तो फिर स्थानीय से लेकर शीर्षस्थ शासन तक आपके पास खुद ही दौड़ा चला आता है. वह आपके नायकत्व को लाभ पहुंचा कर खुद भी उससे लाभान्वित होने के लिए तत्पर होता है. हरियाणा में अपने को धर्मगुरु के रूप में स्थापित करनेवाले बाबा रामपाल के साथ, तो करोड़ों के साम्राज्य खड़ा करने और अब बलात्कार के आरोप में जेल में बंद बाबा आसाराम के साथ भी तो यही हुआ.

इसी तरह इस बात में संदेह नहीं रह गया है कि मथुरा की कीमती सरकारी जमीन पर कब्जा जमाने की कोशिश में जुटा रामवृक्ष यादव भी उत्तर प्रदेश के शासन और सत्ता के सहयोग के बल पर ही अपने जंगल में शेर कहलाया. तभी तो खुफिया महकमा बार-बार चेतावनी भरी रिपोर्ट देता रहा, जन-कल्याण से प्रेरित लोग कोर्ट का दरवाजा खटखटाते रहे, जिला प्रशासन खबरदार करता रहा, लेकिन प्रदेश का शीर्ष शासन अपनी आंखें मूंदे रहा.

घटना के कई दिन बाद मथुरा के डीएम और एसएसपी को हटाने की प्रदेश सरकार की कार्रवाई दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं कही जा सकती. मामले की उच्चस्तरीय जांच की चौतरफा मांग के मद्देनजर राज्य सरकार को खुद इसकी पहल करनी चाहिए थी. जरूरी है कि इस घटना की निष्पक्ष जांच के साथ-साथ रामवृक्ष जैसे तथाकथित बाबाओं को संरक्षण देनेवालों पर भी कानून के हाथ पहुंचें.

साथ ही प्रदेश में सत्ता और राजनीति के संरक्षण में पल रही ऐसी तमाम तथाकथित धार्मिक और निजी सेनाओं का अस्तित्व समय रहते मिटा दिया जाये, ताकि शासन-प्रशासन को चुनौती देनेवाला कोई बाबा फिर से अपना अड्डा न जमा पाये. हालांकि, इस घटना पर हो रही राजनीति और आरोप-प्रत्यारोपों के शोर को देखते हुए फिलहाल ऐसी किसी बड़ी कार्रवाई की उम्मीद कम ही है.

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