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दाल और तपेदिक के बहाने
बिभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ दाल की कीमतें फिर से बेतहाशा चढ़ी हुई हैं. पिछली बार जब दाल की कीमतें चढ़ रही थीं, तो किसी ने कहा कि दाल खाने से गुर्दे खराब हो जाते हैं, इसलिए ज्यादा दाल न खायें. पिछली सरकार के समय जब दाल की कीमतें (और साथ-साथ फूड इन्फ्लेशन) […]
बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
दाल की कीमतें फिर से बेतहाशा चढ़ी हुई हैं. पिछली बार जब दाल की कीमतें चढ़ रही थीं, तो किसी ने कहा कि दाल खाने से गुर्दे खराब हो जाते हैं, इसलिए ज्यादा दाल न खायें. पिछली सरकार के समय जब दाल की कीमतें (और साथ-साथ फूड इन्फ्लेशन) बढ़ रही थीं, तो विश्लेषक जुट गये थे यह बताने के लिए कि लोग समृद्ध हो गये हैं.
अब लोगों का खान-पान बदल गया है, इसलिए खाने की चीजों और खासकर दाल-प्रोटीन के दाम बढ़ रहे हैं. बड़ा दुखद पहलू यह है कि इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि उन गरीबों का क्या हाल होगा, जो समृद्ध नहीं हैं.
इस तरह से दाल-प्रोटीन का बड़ा सीधा और सरल विश्लेषण कर दिया गया है. वर्ष 1950-51 में देश में कुल दलहन उत्पादन 8.41 मिलियन टन था, जो कि वर्ष 2007-08 में बढ़ कर 14.76 मिलियन टन ही हो सका. नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के शोधपत्र ‘इंडियाज पल्सेज सिनॉरियो’ के अनुसार वर्ष 2012-13 में दलहनों का उत्पादन 18.34 मिलियन टन था.
गौरतलब बात यह है कि 1951 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी 36.10 करोड़ थी और आज यह आबादी 125.40 करोड़ आंकी जाती है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दालों की उपलब्धता जो 1961 में 69 ग्राम थी, 2011 में घट कर 39.4 ग्राम ही रह गयी.
एनसीएइआर की रिपोर्ट के अनुसार अध्ययन किये गये 40 वर्षों में दलहन के पैदावार में एक प्रतिशत से भी कम की बढ़ोत्तरी हुई है, जो भारत की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की दर के आधे से भी कम है. इन आंकड़ों को देखने के बाद दाल या प्रोटीन के दामों में इन्फ्लेशन को लोगों की समृद्धि से जोड़ कर विश्लेषण करना सरासर सरलीकरण लगता है. मजे की बात है कि भारत दलहन उत्पादन, दालों के उपभोग और दलहन के आयात, तीनों मामलों में अव्वल है.
प्रोटीन के अन्य स्रोतों के बारे में भी आंकड़ों पर एक नजर डाली जाये. अंडों की प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्धता 1960-61 में सात थी, जो 2012-13 में बढ़ कर 58 हो गयी. दूध की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 2008-09 से 2012-13 के बीच 266 ग्राम से बढ़ कर 299 ग्राम ही हो पायी है. प्रोटीन की उपलब्धता के राज्यवार आंकड़े अगर जांचे जायें, तो मालूम हो सकता है कि विकास समावेशी नहीं है.
भारत के शाकाहारी समाज के लिए दाल प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. प्रोटीन-एनर्जी कुपोषण के कारण कई रोग, विशेषकर तपेदिक के खतरे बढ़ जाते हैं, क्योंकि यह हमारी प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करता है. प्रतिरोधक क्षमता में कमी के कारण एचआइवी-एड्स के भी खतरे बढ़ जाते हैं.
यह देखा गया है कि कुछ मामलों में तपेदिक और एचआइवी-एड्स साथ-साथ होते हैं. कुछ अध्ययन इस ओर भी इशारा करते हैं कि भोजन में प्रोटीन को शामिल करने से तपेदिक की दवाओं का असर बढ़ सकता है. हम इस परिप्रेक्ष्य में भारत में तपेदिक की स्थिति पर भी नजर डाल लें. विश्व स्वास्थ्य संगठन की बीसवीं ग्लोबल टीबी रिपोर्ट 2015 के अनुसार, वर्ष 2014 में रिपोर्ट किये गये 9.6 मिलियन नये तपेदिक मामलों में से सबसे ज्यादा 23 प्रतिशत मामले भारत में रिपोर्ट किये गये हैं.
स्वास्थ्य मंत्रालय के टीबी इंडिया 2015- एनुअल स्टेटस रिपोर्ट के मुताबिक, टीबी प्रिवैलेंस जो कि 1990 में 465 प्रति लाख जनसंख्या थी, वह घट कर 2013 में 211 रह गयी. टीबी के नये मामलों में भी गिरावट आयी है. यह 1990 में 216 प्रति लाख जनसंख्या से घट कर 2013 में यह 171 रह गयी है. फिर भी टीबी की लड़ाई में बहुत आगे जाना है.
सात साल पहले इस लेखक को टीबी हुआ और जब अस्पताल में इलाज के लिए गया, तो वहां पैर रखने की जगह नहीं थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, वर्ष 2016 से पूरी दुनिया में टीबी को लेकर रणनीति में आमूल-चूल बदलाव किया गया है. पहले टीबी को रोकने की रणनीति थी- स्टॉप टीबी, अब यह टीबी उन्मूलन की रणनीति होगी- एंड टीबी. इस हेतु तय किये गये लक्ष्यों का महत्वपूर्ण हिस्सा है कि टीबी के इलाज का खर्च परिवार पर न पड़े.
तपेदक की दवाएं सरकार की तरफ से मुफ्त उपलब्ध हैं, लेकिन तपेदिक उन्मूलन को तभी सफल बनाया जा सकता है, जब प्रोटीन-एनर्जी का कुपोषण दूर किया जा सके. कुपोषण आमतौर पर गरीबी के साथ जुड़ी हुई है. प्रोटीन, जो कि भारत में, मुख्यत: दाल से मिलती है, एक बहुत बड़ा कारक होगा तपेदिक-एचआइवी से लड़ने में. लेकिन प्रोटीन-दाल महंगाई की वजह से गरीब की पहुंच से बाहर होता जा रहा है.
प्रोटीन-दाल के दाम-इन्फ्लेशन को लेकर कई समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन मूलभूत समस्या है दलहन के पैदावार में बढ़ोत्तरी का, जो कि बढ़ती जनसंख्या के दर से काफी पीछे है. दलहन के उत्पादन को लेकर हमें एक ठोस नीति तुरंत तय करनी पड़ेगी. जब हम आवश्यकता पड़ने पर क्रायोजेनिक इंजन बना सकते हैं, तो दालों की उपज बढ़ाने में हमारे कृषि वैज्ञानिक क्यों पीछे हों. दाल की फसलें मुख्यत: असिंचित या अल्प सिंचित क्षेत्रों में की जाती हैं. इनमें बदलाव लाने की जरूरत है. दलहन की उपज बढ़े और किसानों को उनका वाजिब दाम मिले, तो वे दलहन उगाने के लिए स्वत: ही आगे आयेंगे.
यहां तपेदिक का संदर्भ लेकर दलहन की समस्या को जांचने की कोशिश की गयी है. अन्यथा कई सारी अन्य बीमारियों से लड़ने के लिए भोजन में प्रोटीन का होना आवश्यक है. सिर्फ बीमारी ही नहीं, प्रतिकूल मौसम-जलवायु जैसे अत्यधिक गर्मी और जाड़ा से लड़ने के लिए भी प्रोटीन की आवश्यकता होती है. भीषण गर्मी-लू से मरनेवालों की संख्या और जाड़े में सड़क पर सोये लोगों के मरने की संख्या और कारण को भी इस नजर से देखने की आवश्यकता है.
गरीब बहुल इस देश में दाल-प्रोटीन को गुर्दे की बीमारी से जोड़ना या इसके दामों को (कुछ) लोगों की बढ़ती समृद्धि के नजर से देखना अनुचित है. दाल की उपज-पैदावार बढ़ा कर दाल की उपलब्धता बढ़ाना हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए, वरना अमीर दाल पर कब्जा कर स्वास्थ्य लाभ लेंगे और गरीब अपने हाल पर पड़े रहेंगे.
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