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जेल में कटी जिंदगी
वे बेगुनाह होने के बावजूद जिंदगी के 23 बहुमूल्य साल जेल में बिता कर निकले, तो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से उनका यह सवाल स्वाभाविक ही था- ‘अदालत ने मेरी आजादी तो लौटा दी, जिंदगी कौन लौटायेगा?’ पिछले दिनों जयपुर जेल से रिहा हुए निसारउद्दीन अहमद उन तीन लोगों में से एक हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने […]
वे बेगुनाह होने के बावजूद जिंदगी के 23 बहुमूल्य साल जेल में बिता कर निकले, तो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से उनका यह सवाल स्वाभाविक ही था- ‘अदालत ने मेरी आजादी तो लौटा दी, जिंदगी कौन लौटायेगा?’ पिछले दिनों जयपुर जेल से रिहा हुए निसारउद्दीन अहमद उन तीन लोगों में से एक हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने आरोपों से बरी कर दिया है. तीनों को बाबरी मसजिद ढहाये जाने की पहली बरसी पर ट्रेन में हुए बम धमाकों के सिलसिले में पकड़ा गया था.
20 साल के निसार फार्मेसी सेकेंड ईयर के छात्र थे, जब 15 जनवरी, 1994 को पुलिस ने उन्हें कर्नाटक स्थित उनके घर से उठाया था. बाद में उनके बड़े भाई जहीरउद्दीन को भी उठा लिया गया था. दोनों भाइयों को उम्रकैद की सजा हुई. बीते 23 वर्षों में उनका परिवार उनकी बेगुनाही की लड़ाई लड़ते-लड़ते टूट चुका है. कानून का अघोषित सिद्धांत है कि भले सौ गुनहगार छूट जाएं, किसी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए.
लेकिन, खासकर आतंकी घटनाओं के सिलसिले में अपनी जवाबदेही के निर्वहन के दबाव में जांच एजेंसियां अकसर बेगुनाहों को शक के आधार पर आरोपित बना देती हैं, जो वर्षों बाद अदालतों से बेगुनाह करार दिये जाते हैं. इस बीच के लंबे अंतराल में उन्हें और उनके परिवार को जिन परेशानियों और अपमान का सामना करना पड़ता है, उसकी भरपाई की कोई व्यवस्था कानून में नहीं है.
ऐसे मामलों के मद्देनजर करीब तीन साल पहले, तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने राज्य सरकारों को पत्र लिखा था, कि ‘सरकारें आतंकवाद संबंधी मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बनाएं, विशेष सरकारी वकील नियुक्त करें और गलत तरीके से गिरफ्तार व्यक्ति को न सिर्फ तत्काल रिहा किया जाये, बल्कि उनके लिए मुआवजे और पुनर्वास की भी व्यवस्था की जाये. साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति की गलत भावना से गिरफ्तारी करनेवाले अधिकारी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाये.’ हालांकि तब कई दलों ने इसे वोट बैंक की राजनीति करार दिया था.
अब निसारउद्दीन का 23 साल जेल में रहने के बाद बेगुनाह साबित होना फिर से मांग करता है कि सरकारें राजनीतिक आग्रहों से ऊपर उठ कर शिंदे के उस पत्र पर गौर करें. साथ ही जांच एजेंसियां अपनी कार्यप्रणाली को अधिक सक्षम, निष्पक्ष और पारदर्शी बनायें, जिससे कोई बेगुनाह इस तरह अमानवीय शोषण का शिकार न हो.
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