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दलित दमन में शामिल सब

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा आजादी के सात दशक बीतने को आ गये, लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर अत्याचार अब भी जस के तस हैं. अकारण, अवैध और अधर्म के साथ की गयीं अपमान की बातें दलितों के जीवन की फांस और कभी न भुलानेवाला अपमान बन जाती हैं. उनके घर तक जला दिये […]

तरुण विजय

राज्यसभा सांसद, भाजपा

आजादी के सात दशक बीतने को आ गये, लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर अत्याचार अब भी जस के तस हैं. अकारण, अवैध और अधर्म के साथ की गयीं अपमान की बातें दलितों के जीवन की फांस और कभी न भुलानेवाला अपमान बन जाती हैं.

उनके घर तक जला दिये जाते हैं, उन्हें मार दिया जाता है, उनकी महिलाओं से अपमान किया जाता है, फिर भी कुछ नहीं होता. पुलिस, राजनेता, संगठन- सब उन्हीं तमाम कथित सजातीय वर्ग से भरे होते हैं, जिनके लिए दलितों का अपमान, अपमान नहीं होता. दलितों को अलग बस्तियों में बसाना एक सामान्य आम परंपरा है. देश के किसी भी प्रांत में चले जाइये, दलितों पर अन्याय होता है और उसके विरुद्ध आवाज उठानेवालों पर तीन प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं- एक, वे झूठ बाेल रहे हैं. दाे, उनकी बात में तथ्य कम अतिशयोक्ति ज्यादा है और तीन, मामला जाति का नहीं, बल्कि आपसी रंजिश का है- जो इसे जाति का बता रहे हैं, वे प्रांत सरकार को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं.

गत 20 मई को मैं उत्तराखंड के कुछ दलित नौजवानों और उनके प्रमुख नेताओं के साथ जौनसार के पोखरी गांव में शिलगुर मंदिर के उत्सव में गया. वे दलित कई माह से लगातार मेरे पास आ रहे थे.

उनकी शिकायत थी कि जब भी वे गांव जाते हैं, उनको गालियां दी जाती हैं, मंदिर में दर्शन से रोका जाता है. उनकी बस्तियां गांव के निचले इलाके में बनायी गयी हैं, और उनके बच्चों को जौनसार में आमतौर पर बंधुआ मजदूर के नाते रखे जाने की पुरानी परंपरा है. यहां दलितों के प्रति हेय दृष्टि सामान्यत: चलन में है. इस परिदृश्य में मैंने उन दलितों के साथ मंदिर चलने के लिए स्वीकृति दे दी. प्रशासन और पुलिस को मैं सूचित कर ही चुका था.

देहरादून से छह घंटे के थका देनेवाले पहाड़ी सफर के बाद जब हम पोखरी गांव पहुंचे, तो पूरी पहाड़ी पर हजारों लोग रंग-बिरंगे वस्त्रों में दिखे. उत्सवी माहौल था. तनिक ऊंची पहाड़ी पर हल्की चढ़ाई के बाद मंदिर व उसका सुंदर प्रांगण था. यहां चारों ओर की प्राकृतिक छटा मनोरम है, पर यह सिर्फ उनको आनंदित और उल्लसित करती है, जो उस पर्व की मुख्य जाति-धारा में शामिल हों. जो उसमें नहीं हैं, वे हैं त्याज्य, अस्पृश्य, मलिन और बहिष्कृत. उन्हीं के लिए डॉ बाबा साहेब आंबेडकर ने बहिष्कृत-भारत पत्रिका निकाली थी.

रंग-उत्सव का आनंद उनके लिए है, जो उसमें शामिल हैं. मैं उनमें था, लेकिन मेरे साथ प्राय: सौ नौजवान ऐसे थे, जो बहिष्कृत थे. उन्होंने कहा कि वे जीवन में पहली बार इस मंदिर की ओर जाने का साहस कर रहे हैं, क्योंकि मैं उनके साथ चल रहा हूं. क्या इस एहसास को कोई और महसूस कर सकता है? मुझे किसी मंदिर, पूजा, अनुष्ठान आदि में जीवनभर हमेशा शामिल किया जाता रहा, सम्मान दिया जाता रहा.

मुझे कभी बहिष्कृत होने का अनुभव हुआ ही नहीं. पर जिन्हें हमेशा घर के भीतर आने, साथ में प्याले में चाय पीने, मंदिर में पूजा करने से रोका गया- जिन्हें बताया गया कि तुम बहिष्कृत हो, जिनकी आवाज सुनाने के लिए डॉ बाबा साहेब आंबेडकर को हिंदू धर्म छोड़ने पर विवश होना पड़ा, वे मेरे साथ बहुत सशंकित और सहमे हुए चल रहे थे. वह क्षण मेरे लिए एक नये संसार में झांकने का था. उन सबका भय मुझ में भी समाने लगा था. लेकिन, मुझे लगा सबको मेरे विरुद्ध होने दो, पर यदि मैं यह स्वीकार कर सकता हूं कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जाति के कारण बड़ा है, तो मुझ पर धिक्कार होगा.

हम मंदिर पहुंचे. मेरे साथ दलित नेता दौलत कुंवर व उनकी पत्नी थीं. उन्होंने दो बार पुजारी से कहा कि टीका लगा दो, तब लगाया. मैंने देवडोली की पूजा की. दलित युवाओं ने भी डरते-डरते स्पर्श कर मेरे साथ लौटने लगे कि तभी हमारे विरुद्ध नारे लगे और तीन-चार सौ भक्तों की भीड़ एक टूटे बांध की तरह हम पर गिर पड़ी.

हम वहां से भागने लगे कि तभी वे गाड़ी पर चढ़ कर पत्थर मारने लगे. भाजपा कार्यकर्ताओं को पीटा गया, मेरे सिर पर पत्थर लगने से खून बह रहा था. पीडब्ल्यूडी के मेट व ड्राइवर ने मुझे अपना शाॅल दिया, गरम पानी दिया- उसका नाम था उमर. प्रभु कैसी नियति! हिंदू, हिंदू को ही पत्थर से मार रहे थे. पुलिस ने हिफाजत की. मुझे सेना के अस्पताल ले जाया गया. मेरे सिर में टांके लगे.

जिस देश में आज भी यह स्थिति हो कि मंदिर दर्शन के लिए पत्थर झेलने पड़ें, जहां हिंदू ही हिंदू के प्रति इतनी तीव्र घृणा और असहिष्णुता दिखाएं, वहां विवेकानंद और आंबेडकर को कहां-कहां पढ़ाएं? इस मानसिकता का क्या करें कि जो जाति की अभेद्य दीवार बन कर दलित दमन की आवाजों को दबाने लगती है? जहां दलितों का साथ देनेवाले सजातीय अभेद्य दीवार द्वारा समाज से बहिष्कृत हो जाते हों, सचमुच वह सजावटी और नकली सहानुभूति का ही दौर है.

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