।। शीतला सिंह।।
(संपादक, जनमोर्चा)
उत्तर प्रदेश की सियासत इन दिनों अजीबोगरीब हालात से गुजर रही है. चाहे वह मुजफ्फरनगर दंगे से उपजे हालात हों या सैफई महोत्सव, सारे प्रकरण सर्दी के इस मौसम में सियासत को गर्म किये हैं. जब लोकसभा चुनाव सिर पर हो, तो यह सियासी गरमी कुछ ज्यादा ही आंच दिखाती है. शायद ही कोई सियासी दल हो, जिसने मुजफ्फरनगर दंगे की आंच में अपनी रोटी न सेंकी हो. आजाद हिंदुस्तान में यह पहला सांप्रदायिक हादसा था, जिसने लगभग 50 हजार लोगों को बेघर बना दिया. सरकारी आंकड़ों की मानें तो 45 हजार लोग शरणार्थी बन कर राहत शिविरों में रह रहे थे. इस दंगे में 50 से अधिक लोगों की जानें चली गयीं, अच्छी-खासी संख्या में बच्चे यतीम हो गये, संपत्ति के नुकसान का अभी अनुमान ही लगाया जा रहा है. बीते साल सितंबर में भड़की यह आग पूरी तरह से आज भी बुझ नहीं पायी है. बुझती दिखती है तो सियासतदां अपने चुनावी नफे-नुकसान के लिए उसे बुझने नहीं देते. दंगा पीड़ितों को मदद, उनके पुनर्वास और राहत कैंपों की व्यवस्था सभी का राजनीतिक चश्मे से ही आकलन किया जा रहा है.
कुछ दिन पहले आइएसआइ से संबंधित राहुल का जब बयान आया था, तो राजनीतिक हलकों में बड़ा बवाल मचा. वह बयान भी राजनीतिक लाभ उठाने के मकसद से ही दिया गया था. उस समय भाजपा के साथ-साथ सूबे में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की सरकार के जिम्मेदार लोगों ने भी इसे लेकर राहुल और कांग्रेस पर सियासी तीर चलाये थे, पर अभी हाल में दिल्ली पुलिस की एक कार्रवाई ने एक तरह से राहुल के उस बयान की असलियत पर यह कह कर मुहर लगा दी कि मुजफ्फरनगर के कुछ बाशिंदों से आतंकी संगठन लश्कर ने संपर्क साधे थे. उस समय तो सूबे के पुलिसिया तंत्र ने इस तरह की किसी जानकारी से इनकार कर दिया था, लेकिन हाल ही में मुजफ्फरनगर के एसपी सिटी ने जब यह बयान दिया कि लश्कर के आतंकी मुजफ्फरनगर के ही एक बाशिंदे के यहां आकर रुके थे, तो हलचल मच गयी. हालांकि सूबे का पुलिस और गृह महकमा इसे भी स्वीकार करने में आगा-पीछा कर रहा है.
ऐसा ही कुछ राहत शिविरों में बच्चों की मौत के मामले में भी दिखाई पड़ा था. शिविरों में आवश्यक सुविधाओं की अनुपलब्धता और बदइंतजामी के कारण बच्चों की मौत होने की खबरें जब मीडिया में आयीं तो सरकारी तंत्र उसे मानने के लिए तैयार नहीं हुआ. मामला जब कोर्ट में पहुंचा और उसके आदेश पर जांच शुरू हुई, तो उसी सरकारी तंत्र ने 34 बच्चों के मरने की पुष्टि की. हालांकि जांच करनेवालों ने मौतों की बात स्वीकार तो की, लेकिन उसकी वजह सरकारी बदइंतजामी को बताने के बजाय उसका ठीकरा अन्य कारणों के सिर मढ़ दिया. अगर वे बदइंतजामी को स्वीकार करते, तो उसके लिए स्वयं जिम्मेवार बन जाते. इस बीच सपा मुखिया मुलायम सिंह ने कहा कि शिविरों में रहनेवाले लोग भाजपा और कांग्रेस के हैं और वे सरकार को बदनाम करने के लिए तरह-तरह के तोहमत लगा रहे हैं. इससे तल्खी और बढ़ गयी.
दंगे की सियासत के बीच विरोधियों को एक ताजा मुद्दा मिल गया सैफई का. जहां तक सैफई महोत्सव के आयोजन का सवाल है, उस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, बशर्ते वह लोक कलाओं और ग्रामीण परिवेश से जुड़ी विभिन्न विधाओं को प्रोत्साहित करने तथा सामाजिक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से किया जा रहा हो. सैफई मुलायम सिंह की जन्मस्थली है. जिसका जहां घर-द्वार होता है, उसकी बेहतरी के प्रति लगाव अधिक होना स्वाभाविक भी है. लेकिन चौदह दिन तक चले सैफई महोत्सव में जिस तरह से दिल खोल कर आयोजन किये जाने की बात सामने आयी, उसने बैठे-बिठाये विरोधियों को हमले करने का एक हथियार दे दिया. वे यह कहने लगे कि ऐसी हालत में, जब गलन भरी ठंड के कारण मुजफ्फरनगर के राहत शिविरों में तमाम लोग ठिठुर रहे हैं, सैफई में जश्न मनाया जा रहा है. इसके साथ ही सपा से जुड़े लोगों द्वारा ही कई अवसरों पर कानून-व्यवस्था के लिए पैदा की जा रही समस्या में भी सरकार के लिए संकट और जवाबदेही का कारण तो बन ही रही है, विरोधियों को भी उंगली उठाने का मौका दे रही है.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बने लगभग दो साल होने जा रहे हैं, लेकिन शुरू से ही ऐसी परिस्थितियां पैदा होती चली जा रही हैं, जो इस बात का एहसास दिलाती हैं कि सरकार और उसकी मशीनरी में सामंजस्य का अभाव है या मशीनरी सरकार को दिग्भ्रमित कर रही है. इस वजह से सरकार को विभिन्न मुद्दों पर अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. सरकार के साथ-साथ पार्टी के मुखिया को भी ऐसी स्थिति न आये, इस ओर ध्यान देना होगा.