कहते हैं कि वक्त का पहिया कभी थमता नहीं. मगर इसी चक्र में तिथियों के ऐसे संयोग बन जाते हैं कि सुनहरा अतीत भी एकाएक हमारी आंखों के सामने उभर आता है.जैसे, 2014 का कैलेंडर हूबहू 1947 के कैलेंडर की तरह है, फर्क बस इतना है कि 1947 का कैलेंडर हमारे लिए स्वाधीनता की अनुपम सौगात लेकर आया था और 2014 का कैलेंडर एक सवाल बन कर खड़ा है कि क्या यह भी हमारे देश की तसवीर और तकदीर बदल देगा?
वक्त का पहिया घूम कर आज फिर वहीं आ पहुंचा है, जहां लोग स्वच्छंदता की सुखद अनुभूति की आस लगाये बैठे हैं. लेकिन आज समय के साथ जहां परिस्थितियां बदली हैं, वहीं हमारे नायक भी बदल गये हैं. नहीं बदला है तो सिर्फ मध्यमवर्गीय लोगों व युवाओं का वह जज्बा, जिसके बूते कल अंगरेजों को बाहर कर आजादी प्राप्त की थी और आज वो भ्रष्टाचार-कुशासन से हर हाल में मुक्ति चाहते हैं.
पिछले वर्ष की घटनाओं से भी ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यमवर्गीय लोग देश में व्यापक बदलाव के आकांक्षी हैं. इसकी तस्दीक दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से हो जाती है.
देश में ‘आप’ का उदय, दिनोदिन इसकी बढ़ती लोकप्रियता तथा लाखों कमानेवालों का अपनी नौकरी छोड़ इस पार्टी में शामिल होना, महज एक अप्रत्याशित घटनाक्रम नहीं है, बल्कि संकेत है कि राष्ट्रीय पार्टियों और उनकी स्थापित शासन शैली से अब लोग ऊब चुके हैं.
बहरहाल, लोकसभा चुनावों में अब कुछ ही महीने शेष हैं और चुनावी नतीजे यह तय कर देंगे कि देश की भावी तसवीर कैसी होगी? बावजूद इसके हमारा ताजा कैलेंडर एक नये युगारंभ के साथ-साथ अपने नेताओं से भी सुशासन की अपेक्षा रखता है.
रवींद्र पाठक, जमशेदपुर