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तीन बार तलाक कहना सही नहीं

नासिरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार दसियों साल से मुसलमान एक ऐसी बहस पर अटके हैं, जिसे बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था. यह काम भी मुसलमानों को खुद ही कर लेना चाहिए था. नतीजतन, बहस रह-रह कर सिर उठाती रहती है. बहस है, क्या एक साथ और एक वक्त में तलाक-तलाक-तलाक कह देने से मुसलमान जोड़ों […]

नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
दसियों साल से मुसलमान एक ऐसी बहस पर अटके हैं, जिसे बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था. यह काम भी मुसलमानों को खुद ही कर लेना चाहिए था. नतीजतन, बहस रह-रह कर सिर उठाती रहती है. बहस है, क्या एक साथ और एक वक्त में तलाक-तलाक-तलाक कह देने से मुसलमान जोड़ों के बीच का शादीशुदा रिश्ता खत्म हो जाता है?
उत्तराखंड की रहनेवाली शायरा बानो की शादी 2002 में हुई.
शादी के लिए दहेज देना पड़ा. शादी के चंद रोज बाद ही और ज्यादा दहेज की मांग शुरू हो गयी. जब मांग पूरी न हुई तो उस पर जुल्मो-सितम‍ किये गये. खबरों के मुताबिक, उसे ऐसी दवाएं दी गयीं, जिससे उसके कई एबार्शन हो गये. वह हमेशा बीमार रहने लगी. पहले उसे जबरन मायके भेजा गया. फिर 2015 के अक्तूबर में इकट्ठी तीन बार तलाक-तलाक-तलाक देकर शौहर ने उससे मुक्ति पा ली. शायरा ने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर तलाक के इस रूप यानी एक साथ इकतरफा तलाक को खत्म करने की मांग की है.
इसी तरह, लखनऊ की रजिया की कहानी है. शादी के कुछ महीनों बाद शौहर कमाने के लिए सऊदी अरब चला जाता है. इस बीच रजिया एक बच्चे की मां बन जाती है. अचानक एक दिन उसके ससुराल वाले बताते हैं कि शौहर ने उसे सऊदी से टेलीफोन पर तलाक दे दिया है. एक पल में रजिया की जिंदगी बदल दी जाती है. बवक्त एक साथ तीन तलाक की ऐसी घटनाएं, कई मुसलमान महिलाओं की जिंदगी का सच है.
तलाक के इस रूप को इसलामी कानून की जबान में तलाक-ए-बिदत कहते हैं. यानी तलाक का ऐसा तरीका, जो कुरान और हदीस में नहीं मिलता है. तलाक की बुनियाद, जोड़ों के बीच मतभेद या लगाव न होने का नतीजा होती हैं.
इसीलिए तलाक की इजाजत देने से पहले इसलाम इस बात की पैरवी करता है कि जोड़े सुलह की गुंजाइश तलाशें.मौलाना अबुल कलाम आजाद अपनी तफ्सीर ‘तर्जमानुल कुरान’ में एक आयत के हवाले से कहते हैं, ‘अगर ऐसी सूरत पैदा हो जाये, जिसमें इस बात का अंदेशा हो कि शौहर और बीवी में अलगाव पड़ जायेगा, तो फिर चाहिए कि खानदान की पंचायत बिठाई जाये. पंचायत की सूरत यह हो कि एक आदमी मर्द के घराने से चुन लिया जाये और एक औरत के. दोनों आदमी मिल कर सुलह कराने की कोशिश करें.’
अगर सुलह न हो पायी तब? तलाक इस सुलह के नाकाम होने के बाद का अगला कदम है. पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) की हदीस है, ‘खुदा को हलाल चीजों में सबसे नापसंदीदा चीज तलाक है.’
फिर भी इसकी नौबत आ गयी है तो मौलाना आजाद ने इसी किताब में तलाक से जुड़ी आयत के हवाले से लिखा है, ‘तलाक देने का तरीका यह है कि वह तीन मर्तबा, तीन मजलिसों में, तीन महीनों में और एक के बाद एक लागू होती हैं. और वह हालत जो कतई तौर पर रिश्ता निकाह तोड़ देती है, तीसरी मजलिस, तीसरे महीने और तीसरी तलाक के बाद वजूद में आती है.
उस वक्त तक जुदाई के इरादे से बाज आ जाने और मिलाप कर लेने का मौका बाकी रहता है. निकाह का रिश्ता कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिस घड़ी चाहा, बात की बात में तोड़ कर रख दिया. इसके तोड़ने के लिए मुख्तलिफ मंजिलों से गुजरने, अच्छी तरह सोचने, समझने, एक के बाद दूसरी सलाह-मशविरा की मोहलत पाने और फिर सुधार की हालत से बिल्कुल मायूस होकर आखिरी फैसला करने की जरूरत है.’ (खंड दो, पेज 196-197)
कुछ और चीजें भी देखते हैं. जैसे पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के वक्त में तलाक का क्या तरीका अपनाया गया होगा? एक हदीस है, ‘महमूद बिन लबैद कहते हैं कि रसूल को बताया गया कि एक शख्स ने अपनी बीवी को एक साथ तीन तलाकें दे दी हैं. यह सुन कर पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) बहुत दुखी हुए और फरमाया, क्या अल्लाह की किताब से खेला जा रहा है, वह भी तब, जब मैं तुम्हारे बीच मौजूद हूं.’ मौलाना उमर अहमद उस्मानी ‘फिक्हुल कुरान’ में बताते हैं कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के जमाने में अगर तीन तलाकें एक साथ दी जाती थीं, तो वह एक तलाक ही शुमार की जाती थी.
अंदाजा लगाइए इसलाम, शादी न चल पाने की सूरत में अलग होने का यह तरीका सदियों पहले बता रहा था. कुरान ने जो तरीका बताया, उसे तलाक-ए-रजई या अहसन कहा गया है.
इसे सबसे बेहतरीन तरीका भी माना गया है. अब अगर इस तरीके को छोड़ कर कुछ और अपनाया जाये, तो यह किस शरीअत की हिफाजत कही जायेगी?
ऐसा नहीं है कि सभी भारतीय मुसलमान एक वक्त में दिये गये तीन तलाक को सही मानते हैं. लेकिन हां, मुसलमानों में कुछ ऐसे तबके अब भी हैं, जो इस तीन तलाक को बिल्कुल नहीं मानते. वह तीन चरणों की प्रक्रिया पूरी करने पर जोर देते हैं. सवाल है, अगर वे मान सकते हैं, तो बाकी लोग क्यों नहीं?
मिस्र ने ऐसे तलाक से 1929 में ही छुटकारा पा लिया था. इसके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, कुवैत, इराक, इंडो‍नेशिया, मलेशिया, ईरान, श्रीलंका, लीबिया, सूडान, सीरिया ऐसे मुल्क हैं, जहां तलाक कानूनी प्रक्रियाओं से गुजर कर पूरा होता है.
दुनिया में इसलाम पहला ऐसा मजहब था, जिसने शादी को दो लोगों के बीच बराबर का करार बनाया. अगर निकाह एक खास प्रक्रिया के बिना पूरी नहीं हो सकती, तो बिना किसी प्रक्रिया के एकबारगी सिर्फ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह देने से निकाह खत्म कैसे हो जाना चाहिए?
यही नहीं, अगर निकाह बिना औरत की रजमांदी के पूरी नहीं हो सकती, तो उसे शामिल किये बिना तलाक की प्रक्रिया कैसे पूरी हो जाती है? यह कैसी विडंबना है कि शादी या तलाक की जो प्रक्रिया इसलाम ने तय की थी, उसकी झलक नये जमाने के कानूनों में तो दिखती है, लेकिन मुसलमानों ने ही उसे छोड़ दिया.
बेहतर हो कि एक साथ तीन तलाक देने के तरीके को मुसलमान खुद ही खत्म करें. यह सही तरीका नहीं है. वरना शायरा या रजिया जैसी अदालत की चौखट पर जायेंगी ही.

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