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हमारे देश की अस्वस्थ जीडीपी

संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् चकित न हों. मुझे पता है भारत की जीडीपी वृद्धि दर विश्व में फिलहाल सर्वाधिक है (चीन से भी अधिक) और अनेक अंतरराष्ट्रीय निकाय हमें शाबाशी दे रहे हैं. हमारे आर्थिक सर्वेक्षण 2016 एवं बजट 2016-17 में भी इस आधार पर अनेक योजनागत विश्लेषण व अनुमान लगाये गये हैं. […]

संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
चकित न हों. मुझे पता है भारत की जीडीपी वृद्धि दर विश्व में फिलहाल सर्वाधिक है (चीन से भी अधिक) और अनेक अंतरराष्ट्रीय निकाय हमें शाबाशी दे रहे हैं. हमारे आर्थिक सर्वेक्षण 2016 एवं बजट 2016-17 में भी इस आधार पर अनेक योजनागत विश्लेषण व अनुमान लगाये गये हैं. जीडीपी का परिमाण बढ़ना ही चाहिए, अन्यथा हर साल सुरसा के मुंह की भांति बढ़ रही हमारी आबादी खपेगी कहां, नौकरियां आयेंगी कहां से और प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी कैसे.
ये सब तो ठीक है, किंतु हमारी पूरी व्यवस्था पांच ऐसी बीमारियों से ग्रसित है, जिनका इलाज नहीं हुआ, तो वृद्धि के लाभ केवल कागजों पर रह जायेंगे.
ये पांच मूल, ढांचागत समस्याएं हैं- अनुत्पादक व्यवस्था व प्रक्रियाएं, दिशाहीन शिक्षा प्रणाली, न्यून महिला श्रम भागीदारी, बड़ी जनसंख्या का कृषि में फंसा होना, और विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) नामक बस का छूट जाना.
पहली समस्या, सबसे बड़ी समस्या है उत्पादकता की चर्चा का राष्ट्रीय विमर्श से पूर्णतः गायब होना. हम बातें करते हैं नौकरियों की संख्या की, लेकिन प्रति व्यक्ति उत्पादन क्षमता पर कोई चर्चा ही नहीं होती है. चूंकि यह एक भावनात्मक विषय नहीं है, बल्कि तकनीकी विषय है.
यदि प्रति व्यक्ति उत्पादक क्षमता पर राष्ट्रीय चर्चा शुरू हो जाये तो क्या होगा? हमें पता चलने लगेगा कि बहुत सारे क्षेत्रों में हम इष्टतम निष्पादन नहीं कर रहे हैं. जो तनख्वाह दी जा रही है और जो आउटपुट मिल रहा है, उसका भीषण अंतर अचानक लेंस के नीचे आ जायेगा (यह बात सरकारी क्षेत्र पर भी लागू होगी). इसी विषय को अर्थशास्त्री ‘टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी’ कहते हैं, जिसका एक आसान अर्थ 1+1=3 होता है. इस जादू को जापान ने 1960-70 तक पा लिया था और मलेशिया, इंडोनेशिया आदि ने 1990 तक.
दूसरी समस्या, प्रतिष्ठित सर्वेक्षणों को वर्ष-दर-वर्ष पढ़ें तो एक बात साफ हो जाती है- हमारे 80 से 90 प्रतिशत युवा स्कूल और कॉलेज की पूरी शिक्षा लेने का बाद जैसे ही बाहर निकलते हैं और नौकरी की तलाश शुरू करते हैं, तो उन्हें पता चलता है कि उन्हें अभी एक लंबी दूरी तय करनी है, यदि अपने पैर ठोस रूप से जमाने हैं तो. फिर शुरू होता है अनेक वर्षों का प्रतियोगी परीक्षाओं या इंटरव्यू का एक चक्र और 4, 5 या 6 वर्ष बीतने के बाद छात्र कहीं जाकर टिकता है.
तब तक उसकी उम्र 28 या 30 हो चुकी होती है, अर्थात् सबसे उत्पादक वर्ष खत्म. जब उस युवा को कमरतोड़ मेहनत कर देश की जीडीपी में अपना योगदान करना चाहिए था, तब या तो वह घर पर बैठ कर किसी परीक्षा की तैयारी कर रहा था या सिर्फ भटक रहा था या अपनी डिग्रियों से उलट कोई अलग ही अनुत्पादक कार्य कर रहा था. क्या स्कूल और कॉलेज इसके लिए जिम्मेवार नहीं? तो उनका काम है क्या? बस परीक्षाएं लेते जाना और सर्टिफिकेट बांटते रहना? क्या उनकी ‘आउटकम बेस्ड’ जिम्मेवारी नहीं बांधी जा सकती?
तीसरी समस्या, लड़कियों और महिलाओं की हालत तो और भी बुरी है. ज्यादातर परिवार चाहते ही नहीं कि लड़कियां काम करें! एक सर्वे के नतीजे बताते हैं कि केवल 15 से 20 प्रतिशत महिला मेडिकल डिग्रीधारी डॉक्टर्स वास्तव में कार्यरत हैं- इसे अखंड राष्ट्रीय वेस्टेज कहा जाता है! (पूरे दक्षिण एशिया में भारत में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत सबसे कम है, और हां, महिला सांसदों का प्रतिशत भी (पाकिस्तान और अफगानिस्तान की संसदों में भारत से ज्यादा महिलाएं हैं).
इस शर्मनाक स्थिति से हमारा न केवल विश्व स्तर पर नाम खराब होता है, बल्कि हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा केवल घरेलू काम करता है, जिसकी जीडीपी में गिनती ही नहीं होती है. यदि सरल शब्दों में कहें, तो भारत में एक संपूर्ण लिंगभेद समाप्ति क्रांति की घोर आवश्यकता आ चुकी है. लेकिन, किसी भी पार्टी के लिए ये एक गंभीर मुद्दा है ही नहीं.
चौथी समस्या, देश की 50-60 प्रतिशत आबादी का कृषि में फंसा होना. यह ठीक है कि किसान अन्नदाता है, किंतु क्या हमें 130 करोड़ की आबादी के लिए 70 करोड़ अन्नदाता चाहिए? अमेरिका में केवल 3 प्रतिशत आबादी किसानी करती है और 33 करोड़ लोगों का पेट भरती है.
हम 1947 के बाद न तो विनोबा भावे के क्रांतिकारी भूदान आंदोलन को अंजाम तक ले जा पाये, न कानूनी रूप से भूमि सुधार कर पाये. हर पीढ़ी के साथ जमीनें कटती चली गयीं, प्रति एकड़ उत्पादकता बिगड़ती गयी और गरीबी बढ़ती गयी. किसान राजनीतिक उल्लू साधने का वह हथियार बन गया, जिसका हर एक ने खूब दोहन किया. किसानों ने कमाल किया भी है, किंतु अब इनमें से ज्यादातर को अन्य क्षेत्रों में अवसर दिलाने का समय आ गया है.
पांचवीं और आखिरी समस्या, हम सबसे बड़ी भूल यह हुई कि न तो हम आबादी की बढ़त रोक पाये और न ही विनिर्माण (मैन्यूफैक्चरिंग) बड़े स्तर पर ला पाये. मैन्यूफैक्चरिंग को बड़े स्तर पर लाने का अर्थ है- हमारी व्यवस्था को संपूर्ण रूप से पुनर्परिभाषित करना. प्रक्रियाओं को बेहद सरल बनाना. नौकरशाही समाप्त करना. अब मैन्यूफैक्चरिंग पूरी तरह से मशीनीकृत हो चुकी है.
कोई भी प्रमोटर 10,000 कामगारों को रखने के बजाय पूर्णतः स्वचालित फैक्ट्री लगाना पसंद करेगा, जिसे केवल 50 या 100 कुशल कर्मचारी चला लें. तो हम कैसे हमारी बेरोजगार फौज को नियोजित कर पायेंगे? मेक इन इंडिया को मेरी ओर से शुभकामनाएं, जिसकी सफलता से करोड़ों युवाओं को रोजगार मिल सकेगा.
कौन है जिम्मेवार इस स्थिति के लिए? इसका उत्तर सरल है- 1947 के बाद वह हर भारतीय जिसने कोई सरकारी नीति-निर्माता का पद संभाला, वह हर टीचर जिसने केवल विषय पढ़ाये और बच्चों को आज की जरूरतें नहीं बतायीं, वह हर व्यक्ति जिसने कौशल-विकास की जगह डिग्री पर बल दिया, अर्थात्, हम सब. देश में आज इन मुद्दों पर गंभीर, व्यापक और सतत बहस की आवश्यकता है.
हमारे आपसी मतभेद यदि हमें इन मूल समस्याओं का समाधान करने के बजाय कहीं और ले गये, तो शायद हमें अगले जनसांख्यिकीय लाभांश के लौटने तक का एक बड़ा ही लंबा इंतजार करना पड़ेगा!

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