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जहां प्लेटफॉर्म दिखे लिटा दो

उस दिन दोपहर बड़ी दुःखद खबर मिली कि मेरे एक मित्र के बाबूजी का निधन हो गया है. बंदे को हैरानी हुई. अभी परसों ही तो एक समारोह में भेंट हुई थी उनसे. नब्बे की उम्र में भी सत्तर साल वाले से बीस साल कम दिख रहे थे. बाबूजी का चेहरा देखा, तो लगा मस्ती […]

उस दिन दोपहर बड़ी दुःखद खबर मिली कि मेरे एक मित्र के बाबूजी का निधन हो गया है. बंदे को हैरानी हुई. अभी परसों ही तो एक समारोह में भेंट हुई थी उनसे. नब्बे की उम्र में भी सत्तर साल वाले से बीस साल कम दिख रहे थे.

बाबूजी का चेहरा देखा, तो लगा मस्ती कर रहे हैं. अभी उठ खड़े होंगे. पांच साल पहले ऐसा ही हुआ था. बाबूजी बहुत बीमार थे. परिजन खटिया से उतार कर धूप-बत्ती के इंतजाम में लगे थे कि बाबूजी उठ बैठे. चमत्कार हो गया! बहुत डांटा था उन्होंने. नालायकों को जायदाद के बंटवारे की जल्दी पड़ी है.

पिछले साल तो गजब हो गया था. अस्पताल वालों ने कह दिया था कि अब कुछ रहा नहीं. घर ले जायें और भगवान से दुआ करें. बाबूजी को भरे हृदय से घर लाया गया था. लेकिन अगली सुबह वे अपने बिस्तर से गायब पाये गये. मुहल्ले में कोहराम मच गया. बाबूजी सशरीर ही परलोक चले गये! रोने-पीटने का स्विच ऑन होने को ही था कि देखा बाबूजी दरवाजे पर खड़े हैं. पता चला कि मॉर्निंग वॉक पर गये हुए थे. उन्होंने सबको गिन-गिन कर श्राप दिया.

आज सुबह ही उनके सीने में दर्द उठा. अस्पताल ले जाये गये. डॉक्टर ने लिखा- मृत लाये गये. अब कुछ नहीं हो सकता!

एक परिजन ने तो पूछ ही लिया. इस बार तो फाइनल है न? मित्र ने सर हिलाया, हां देख लिया है अच्छी तरह से हिला-डुला कर. इस बार पक्का है. तभी मित्र के पांच साल के पोते ने सलाह दी. धीरे बोलो, नहीं तो दादू अभी उठ जायेंगे.

जिंदगी के हर मामले में लेट-लतीफ हमारे मित्र उस दिन बहुत जल्दी में दिखे. कई स्थापित रीति-रिवाजों को भी ओवरलुक किया. उन्हें डर लग रहा था कि आज जुलूस के कारण जाम न मिले!

और आखिर वही हुआ. स्वर्गवाहन जाम में फंस ही गया. आगे सड़क के बीचो-बीच बाबू लोगों ने अचानक धरना दे दिया है. वेतन बढ़ाने की उनकी मांग है. नारा लग रहा है- चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो. धीरे-धीरे जाम बढ़ता ही गया. न आगे बढ़ पायें और न पीछे लौट पायें. ऊपर से शिद्दत की गर्मी नरक ढाये हुए थी.

साढ़े चार बज रहा है. मित्र के चेहरे पर चिंता की लकीरें हैं. ऐसा ही रहा तो सूर्यास्त हो जायेगा. अंत्येष्टि संभव नहीं होगी. वापस घर जाना होगा. जनाजे के साथ चलनेवाले बड़ी मुश्किल से मिले हैं. रोज-रोज एक ही मुर्दा फूंकने के लिए दफ्तर से छुट्टी भी तो नहीं मिलती न. बेचारे बाबूजी की बॉडी भी गर्मी में परेशान हो रही है. उनके जल्दबाज स्वभाव के दृष्टिगत डर भी लगा कि कहीं ऐसा न हो कि अभी उठ बैठें और कहें कि भट्टी हो रहा हूं. फूंकना ही तो है. यहीं किनारे कहीं फूंक दो. जाना तो एक जगह है ही.

तभी लगने लगा कि जाम खत्म हो गया. स्वर्गवाहन चल दिया. सबको संतुष्टि हुई कि अब सब ठीक-ठाक होगा. दस मिनट में बैकुंठधाम आ गया.

अंतिम यात्रा के इस इवेंट को मैनेज कर रहे ज्ञानी-ध्यानी बुजुर्ग ने निर्देश दिये- जल्दी करो. जहां भी प्लेटफॉर्म खाली दिखे, लिटा दो. सूर्यास्त होनेवाला है. लेकिन बंदे को लग रहा था कि इस सारी जल्दबाजी के पीछे यह भय भी छिपा है कि कहीं डेडबॉडी में जान न वापस आ जाये! आखिर ऐसे चमत्कार बाबूजी के साथ अक्सर होते रहे हैं.

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

chhabravirvinod@gmail.com

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