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पीछे छूट चुका है स्टिंग का दौर
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया एनकाउंटर की तरह अब स्टिंग भी बदनाम हो चुका है. किसी घटना के सच या झूठ का पता लगाने के लिए स्टिंग पर्याप्त नहीं है, भले ही हम उस घटना के गवाह हों. कोई भी वीडियो सच का एक पहलू भर ही होता है. एनकाउंटर और स्टिंग, ये […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
एनकाउंटर की तरह अब स्टिंग भी बदनाम हो चुका है. किसी घटना के सच या झूठ का पता लगाने के लिए स्टिंग पर्याप्त नहीं है, भले ही हम उस घटना के गवाह हों. कोई भी वीडियो सच का एक पहलू भर ही होता है. एनकाउंटर और स्टिंग, ये दोनों अपनी विश्वसनीयता कैसे खो चुके हैं, इसे समझते हैं.
एनकाउंटर शब्द को भारतीयों ने 1980 के दशक में तब जाना था, जब खालिस्तान को लेकर सिख अलगाववादी आंदोलन अपने पूरे चरम पर था. उस वक्त एनकाउंटर में चरमपंथियों (टेररिस्ट्स) के मारे जाने की खबरें आम थीं. मुंबई में 1990 के दशक में पुलिस ने कई एनकाउंटरों में अंडरवर्ल्ड के छुटभइयों को मार गिराया और मुंबई पुलिस के कई अधिकारी, जो हथकड़ी से बंधे लोगों काे गोली मारने की ख्वाहिश रखते थे, वे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बन गये. उन एनकाउंटरों में कई निर्दोष भी मारे गये और एक मुहावरा सामने आया- ‘उसका एनकाउंटर हो गया’. इस मुहावरे का अर्थ है कि किसी को भी उठा लो और एनकाउंटर के नाम पर उसको मार डालो.
भारतीय मीडिया में स्टिंग की परंपरा 15 साल पहले तहलका टीम ने शुरू की थी. तब तहलका ने खोजी पत्रकारिता के नाम पर कई सारे स्टिंग ऑपरेशनों को अंजाम दिया था. छोटे वीडियो कैमरे और सैन्य-जासूसी तकनीकों के व्यावसायिक इस्तेमाल ने स्टिंग ऑपरेशनों को मुमकिन बना दिया था.
तहलका ने मैच फिक्सिंग को लेकर क्रिकेट खिलाड़ियों और बीसीसीआइ अधिकारियों की बातचीत रिकॉर्ड की थी. इस स्टिंग में कई खिलाड़ियों के नाम सामने आये थे, जिसमें क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन भी थे. उसके बाद कई विदेशी क्रिकेट खिलाड़ियों ने मैच फिक्सिंग में अपने को शामिल माना और उन्हें इसकी सजा भी मिली, जिसमें मशहूर दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेटर हैंसी क्रोनिये भी थे. अजहरुद्दीन के क्रिकेट खेलने पर बैन लगा दिया गया.
अजहरुद्दीन पर लगे बैन को खत्म कर दिया गया. वे लोकसभा का चुनाव जीत कर सांसद बन गये. अजहर ने अपनी गलती कभी नहीं मानी, जबकि उनके खिलाफ सबूत भी थे. वे साफ बच गये, लेकिन हैंसी क्रोनिये नहीं बच पाये. बाकी किसी और क्रिकेटर का साथ कुछ भी ऐसा नहीं हुआ.
तहलका के स्टिंग के दौर में मैं मुंबई में एक अखबार का संपादन कर रहा था. हमारी संपादकीय टीम तहलका स्टिंग से खासा प्रभावित थी, इसलिए हमने उस पर अखबार का एक पूरा अंक ही निकाला था, जिसमें कुछ अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी खेल में भ्रष्टाचार के बारे में बात कर रहे थे. लेकिन, यह कहना मुश्किल है कि उस स्टिंग से हमें क्या मिला. भद्रजनों के खेल क्रिकेट में भ्रष्टाचार और मैच फिक्सिंग के मामले में क्रिकेटरों का निलंबन जारी रहा.
मैच फिक्सिंग के लिए खिलाड़ियों को सजा भी मिलती रही. गौरतलब है कि दुनिया के सबसे भ्रष्ट क्रिकेट लीगों में आइपीएल रहा है. जाहिर है, खेलों में भ्रष्टाचार पर स्टिंग का कोई असर नहीं पड़ा. स्टिंग ऑपरेशनों की ऐसी नाकामियां अन्य क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है.
इसी महीने एक स्टिंग आया है, जिसमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी के सांसदों, मंत्रियों से लेकर शीर्ष अधिकारी तक पैसे लेते नजर आ रहे हैं. सबको पता है कि इस स्टिंग पर पार्टी का क्या बयान था. उसने साफ कहा कि हमारी पार्टी को बदनाम करने के लिए हमारे विरोधियों की साजिश है यह स्टिंग.
भारत में स्टिंग की इस नाकामी के दो कारण हैं. मुख्य कारण तो यही है कि हमारे देश में नैतिक जिम्मेवारी लेने का विचार बहुत मजबूत नहीं है. मैं ऐसा इसलिए मानता हूं, क्योंकि हमारी नैतिकता बहुत लुंज-पुंज है.
भ्रष्ट नेता हमारी राजनीति में बने हुए हैं, दोषी करार दिये गये नेता भी राजनीति में हैं, मसलन लालू यादव और वे अकेले भी नहीं हैं, यह सब इसी बात का सबूत है कि हमारी नैतिकता कितनी लुंज-पुंज है. हम ऐसी व्यवस्था में रह रहे हैं, जहां बिचौलियों के बिना काम नहीं चलता और घूस के बिना जिंदगी आगे नहीं बढ़ती. ऐसे में महज एक स्टिंग में किसी को भ्रष्ट या अनैतिक बताने से किसी को कुछ भी फर्क नहीं पड़नेवाला है.
सत्ता में शामिल कई ताकतवर लोगों के स्टिंग हुए हैं, लेकिन उनके खिलाफ सबूतों को खारिज कर दिया जाता रहा है. मसलन, वह स्कैंडल, जिसमें अमित शाह वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से एक लड़की पर नजर रखने के लिए कह रहे हैं, क्योंकि किन्हीं ‘साहब’ द्वारा यह मांग की गयी थी. भाजपा के एक और अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण भी एक स्टिंग के बाद दोषी करार दिये गये और जेल भी भेजे गये. बहुत जल्द उन्हें जमानत मिल गयी और अपने घर पर उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली.
स्टिंग इसलिए भी काम नहीं कर पाता, क्योंकि मीडिया अक्सर समझौता कर लेता है. मसलन, एक स्टिंग में जीटीवी के संपादक पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जिसमें वे एक उद्योग घराने से रिश्वत मांगते दिख रहे हैं. इसके लिए उनकी गिरफ्तारी भी हुई थी, लेकिन अब भी वे संपादक के पद पर काबिज हैं.
अब लोग भी स्टिंग कारनामों से ऊब चुके हैं, क्योंकि जब इसका कोई ठोस नतीजा ही नहीं निकलता, तो फिर कोई क्यों इसमें दिलचस्पी रखे. तहलका के पूर्व पत्रकार अनिरुद्ध बहल भी स्टिंग पत्रकारिता करते रहे हैं, लेकिन उनके स्टिंग कारनामों को कोई अहमियत नहीं मिलती है.
अरविंद केजरीवाल जब दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने दिल्लीवासियों से सरकारी कार्यालयों में अधिकारियों द्वारा घूस मांगे जाने को गुप्त तरीके से मोबाइल से रिकॉर्डिंग करने के लिए उत्साहित िकया, जिससे कि दोषियों को सजा दी जा सके. दिल्ली में इस अभियान का विज्ञापन के जरिये खूब प्रचार भी किया गया, लेकिन उसका कितना फायदा हुआ, यह अभी तक किसी को मालूम नहीं है. ऐसे में अगर बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी पर मौजूदा स्टिंग का कुछ असर पड़ता है, तो मेरे लिए यह बहुत हैरानी की बात होगी.
तहलका से शुरू हुए स्टिंग पत्रकारिता का दौर अब पीछे छूट चुका है. भ्रष्टाचार अभी खत्म नहीं हुआ है, लेकिन इतना जरूर है कि सरकार में बैठे लोग अब ज्यादा सावधान हैं.
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