।। प्रमोद जोशी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
लोकपाल बिल अब पास हो जायेगा. इसे मुख्यधारा के लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है. समाजवादी पार्टी से लेकर मायावती तक सब इसके पक्ष में आ गये हैं, भाजपा भी. उसकी केवल दो आपत्तियां हैं. पहली, जांच के दौरान सीबीआइ अधिकारियों के तबादले और दूसरी सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के पहले उन्हें सूचना देने के बाबत. लोकसभा से पास हुए विधेयक में राज्यसभा में इतने संशोधन आये कि उसे प्रवर समिति को सौंपना पड़ा था. प्रवर समिति ने सुझाव दिया है कि लोकपाल द्वारा भेजे मामलों पर लोकपाल की निगरानी रहेगी. इसके अलावा जिन मामलों की जांच चलेगी, उनसे जुड़े अफसरों का तबादला लोकपाल की सहमति से ही होगा. पर सरकार चाहती है कि तबादले का अधिकार उसके पास रहे. सरकार यह भी चाहती है कि किसी अफसर के खिलाफ कार्रवाई के पहले उसे सूचित किया जाये. झूठी शिकायतें करनेवालों के खिलाफ कार्रवाई करने की व्यवस्था भी विधेयक में है. इसके अंतर्गत अधिकतम एक साल की सजा और एक लाख रुपये तक के जुर्माने की व्यवस्था है. भारतीय दंड संहिता में व्यवस्था है कि शिकायत झूठी पायी जाने पर भी यदि उसके पीछे सदाशयता है, तो यह नियम लागू नहीं होता. प्रवर समिति की अनुशंसा है कि यह बात इस कानून में दर्ज की जाये.
लोकपाल बिल पास होने या न होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उस पर राजनीति. दिल्ली में ‘आप’ की सफलता के बाद इसे पास कराने में जैसी तेजी आयी है, वह विस्मयकारक है. राहुल गांधी ने इस सवाल को कभी महत्वपूर्ण नहीं माना. अब अचानक उन्होंने विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला ली. कांग्रेस ही नहीं, भाजपा समेत सभी पार्टियां इसे पास कराने पर जोर दे रहीं हैं. कानून संसद से ही पास हो सकता है, जिसके लिए बड़े स्तर पर राजनीतिक सहमति जरूरी है. गौर से देखें तो किसी भी राजनीतिक दल को ‘अन्ना आंदोलन’ के दबाव में कानून बनाना पसंद नहीं था. यह बात 30 अगस्त और दिसंबर, 2011 तथा 13 मई, 2012 के संसद के विशेष अधिवेशनों में कुछ राजनेताओं के वक्तव्यों से प्रकट भी हुई थी.
अन्ना हजारे की 15 अगस्त, 2011 को गिरफ्तारी और उसके बाद रिहाई के समय एक प्रकार की राजनीतिक सहमति बनी थी कि कानून बनाया जाना चाहिए. तीस अगस्त को संसद के एक विशेष सत्र में दोनों सदनों ने एक मंतव्य को स्वीकार किया था. इसमें अन्ना की तीन शर्तें शामिल थीं. निचले स्तर की नौकरशाही को लोकपाल के दायरे में लाना, सिटिजन चार्टर और हर राज्य में लोकायुक्त नियुक्त करना. सीबीआइ को सरकारी कैद से मुक्ति दिलाना भी इस आंदोलन का लक्ष्य था. दिसंबर, 2011 में लोकसभा ने जिस विधेयक को पास किया, उसमें इन शर्तों की आंशिक पूर्ति ही हो पायी. कई जगह सांविधानिक दिक्कतें हैं और कहीं सरकारी मंशा नहीं है. सिटिजन चार्टर पर एक बिल सरकार ने लोकपाल विधेयक से भी पहले पेश कर दिया था. इस बिल के प्रावधानों के तहत एक तय समय में सभी संस्थाओं को जनता के काम पूरे करने होंगे. सभी संस्थाओं में शिकायत निवारण अधिकारी होंगे. राज्यों में पब्लिक ग्रीवांस रीड्रेसल कमीशन बनेंगे. हालांकि अन्ना सिटिजन चार्टर को लोकपाल के दायरे में चाहते थे, लेकिन इस बिल में व्यवस्था है कि कोई भी पीड़ित व्यक्ति लोकपाल या लोकायुक्त के सामने अपील कर सकेगा.
अन्ना लोकपाल विधेयक से संतुष्ट हैं. रालेगण सिद्धि में अनशन के छठे दिन उन्होंने कहा कि अब जो विधेयक पेश किया गया है, हमारी कई उम्मीदें उससे पूरी हो गयी हैं. लोकायुक्त के गठन और सिटिजन चार्टर जैसी मांगें भी जल्द पूरी हो जाएंगी, ऐसी उम्मीद है. लेकिन अरविंद केजरीवाल का कहना है कि ‘सीबीआई को स्वतंत्र नहीं किया तो इस बिल का कोई मतलब नहीं है. इस बिल से एक मंत्री तो क्या, कोई चूहा भी जेल नहीं जा सकता. इस बिल से सिर्फ राहुल गांधी को फायदा होता नजर आ रहा है, बाकी दूर-दूर तक इससे कोई फायदा नहीं है.’
परंपरागत राजनीति के एकजुट होने और अन्ना-अवधारणा में सेंध लगने के कारणों पर अब गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, पर यह साफ है कि इस आंदोलन ने मुख्यधारा की राजनीति को हिला कर रख दिया है. इसका पहला उदाहरण दिल्ली से मिला है. देखना यह है कि यह ‘नयी राजनीति’ कोई बेहतर शक्ल लेगी या पानी के बुलबुले की तरह खत्म हो जायेगी. फिलहाल, दिल्ली में मिली सफलता के फौरन बाद दो ऐसे मोरचे खुले हैं, जिनके कारण ‘आप’ को विवादों ने घेर लिया है. सरकार बनाने की संभावनाओं से भाजपा ने हाथ खींच कर और कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन की गुगली फेंक कर ‘आप’ को असमंजस में डाल दिया है. ‘आप’ ने 18 शर्तें पेश कर इसका जवाब देने की कोशिश की, लेकिन उसके अंतर्विरोध भी सामने आने लगे हैं. सत्ता की राजनीति असंभव बातों को संभव बनाने की कला है. ‘आप’ के पास आंदोलन का अनुभव है, सरकार चलाने का नहीं; भाजपा और कांग्रेस को यही साबित करना है. कुल मिला कर ‘आप’ जहां मुख्यधारा की राजनीति की पोल खोलना चाहती है, वहीं मुख्यधारा की राजनीति उसके बचकानेपन को रेखांकित कर रही है. ‘आप’ के पीछे जनता का समर्थन है और अब तक उसकी सदाशयता को लेकर शिकायतें नहीं हैं, पर उसे बड़ा धक्का अन्ना हजारे के साथ टकराव मोल लेकर मिला है. वह टकराव से पीछे हट भी नहीं रही है. रविवार को केजरीवाल गुट से जुड़े कुमार विश्वास ने ट्वीट किया, ‘महासमर में कभी ऐसा समय आता है कि भीष्म के मौन और गुरु द्रोण के सिंहासन-सहमत हो जाने पर भी कंटक पथ पर पांच पांडवों को युद्ध जारी रखना पड़ता है.’ यानी ‘आप’ इस लड़ाई को तार्किक परिणति तक ले जाना चाहेगी; लेकिन कैसे?
‘आप’ का उदय मुख्यधारा की राजनीति की विसंगतियों को उजागर करने के लिए हुआ है, पर उसके पीछे कोई सुस्पष्ट विचार या सामाजिक शक्ति नहीं है. अब तक वह केवल कुछ व्यक्तियों के ग्रुप के रूप में सामने आयी है. हालांकि जनता के बड़े वर्ग की सहानुभूति उसके साथ है. यह वर्ग मुख्यत: शहरी मध्यवर्ग है, परंतु दिल्ली में जिस तरह बहुजन समाज पार्टी के वोट 14 फीसदी से घट कर पांच फीसदी रह गये हैं, उससे जाहिर है कि ‘आप’ का समर्थन करनेवालों में सवर्ण शहरी मध्यवर्ग के अलावा कोई और भी है. देखना है कि ‘आप’ की दृष्टि कितनी दूर तक जाती है और यह भी कि उसकी टोली में शामिल लोगों का इरादा क्या है. लोकपाल बिल के पास होने से उसकी राजनीति खत्म नहीं होगी, बल्कि उसके पास बेहतर राजनीतिक हथियार होगा. अब यह साबित होगा कि केवल लोकपाल बनने से ही सब कुछ नहीं बदल जायेगा!