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असमानता की बढ़ती खाई का खतरा

अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार दुनिया में गरीबी और अन्याय दूर करने के लिए काम करनेवाली संस्था आॅक्सफैम ने क्रेडिट स्विस के आंकड़ों के आधार पर बढ़ती असमानता की जो भयावह तस्वीर खींची है, उसने नवउदारवादी नीतियों की उपयोगिता पर फिर से बहस तेज कर दी है. इस तस्वीर से जहां नवउदारवाद के आलोचक अपनी […]

अरुण कुमार त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार
दुनिया में गरीबी और अन्याय दूर करने के लिए काम करनेवाली संस्था आॅक्सफैम ने क्रेडिट स्विस के आंकड़ों के आधार पर बढ़ती असमानता की जो भयावह तस्वीर खींची है, उसने नवउदारवादी नीतियों की उपयोगिता पर फिर से बहस तेज कर दी है.
इस तस्वीर से जहां नवउदारवाद के आलोचक अपनी बात को सही होते हुए पा रहे हैं कि मौजूदा आर्थिक प्रक्रिया के माध्यम से अमीर और अमीर होंगे व गरीब और गरीब होंगे, बल्कि नवउदारवाद के पैरोकार भी यह सोच कर बेचैन हैं कि जनता के मन में इन नीतियों के प्रति गहरा अविश्वास पनपेगा. क्रेडिट स्विस का दावा है कि दुनिया के एक फीसदी अमीर लोगों के पास जितनी दौलत है, वह दुनिया के 99 फीसदी लोगों की दौलत के बराबर है.
यह आंकड़ा उस समय और चौंकाता है, जब वह कहता है कि दुनिया के 62 सबसे अमीर लोगों ने धरती के आधे संसाधनों पर कब्जा कर रखा है और बाकी आधे में पूरी दुनिया है. इन 62 अमीरों में 31 अमीर अमेरिका के, 17 यूरोप के और बाकी दुनिया के अन्य देशों के हैं. 2010 से अब तक इन 62 लोगों की संपत्ति में 44 प्रतिशत का इजाफा हुआ है और 35 करोड़ लोगों के धन में 41 प्रतिशत की गिरावट आयी है.
ये आंकड़े न सिर्फ नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से उन लोगों को बेचैन करते हैं, जो समता के मूल्यों में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि लोकतंत्र की कामयाबी के लिए असमानता की खाई का चौड़ा होना खतरनाक है, बल्कि उनको भी परेशान कर रहे हैं, जो असमानता को तरक्की का प्रेरक तत्व मानते हैं.
थामस पिकेटी ने पिछले दस सालों के गंभीर अर्थशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर यह सिद्धांत दिया है कि इन नीतियों में असमानता अंतर्निहित है. पिकेटी इस असमानता को दो श्रेणियों में बांटते हैं. एक श्रेणी है आय की असमानता की और दूसरी श्रेणी है संपत्ति की असमानता की. असमानता की इस गति का वे U (यू कर्व) के नियम के माध्यम से विश्लेषण करते हैं. यू कर्व के नियम से मुताबिक, असमानता पहले घटती है और फिर बढ़ कर पहले की स्थिति में पहुंचने लगती है.
वे बीसवीं सदी के आंकड़ों का अध्ययन करते हुए बताते हैं कि 1910 और 1920 के दशक में अमेरिका की राष्ट्रीय आय में ऊपर की दस फीसदी आबादी का हिस्सा 45 से 50 प्रतिशत था, जो 1950 के दशक में घट कर 35 फीसदी तक आ गया. उस हिस्से में यह कमी 1970 के दशक तक रहती है, लेकिन इसके बाद वह बढ़ने लगती है. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में वह अनुपात फिर बढ़ कर 45 से 50 फीसदी तक पहुंच जाता है. यानी आय की असमानता का जो स्तर बीसवीं सदी के आरंभ में था और जिसे मार्क्सवादी राजनीति और समाजवादी दबाव के कारण उत्तरार्ध में कम किया जा सका, वह फिर पहले जैसी स्थिति में पहुंचने लगा है.
इस तरह वे r(आर) और g(जी) जैसे प्रतीकों के माध्यम से संपत्ति में आनेवाले अंतर के नियम का प्रतिपादन करते हैं. यहां r(आर) का तात्पर्य पूंजी से होनेवाली औसत सालाना प्राप्तियों और g(जी) का संबंध अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर यानी आय या उत्पाद से है. पिकेटी कहते हैं कि इस समय पूंजी से होनेवाली प्राप्तियों जैसे कि मुनाफा, लाभांश, ब्याज, किराया वगैरह यानी कि r और आय व उत्पाद की वृद्धि दर यानी g के बीच का अनुपात 400 से 700 प्रतिशत तक पहुंच गया है. यह अनुपात बीसवीं सदी के आरंभ में घट कर 200 से 300 प्रतिशत तक आ गया गया था. मतलब उस समय आय का वितरण हो रहा था, पर आज आय के वितरण में भारी भिन्नता आ गयी है.
पिकेटी दिसंबर के आरंभ में मुंबई आये थे और उन्होंने भारतीय नीति-निर्माताओं और अभिजात वर्ग को आगाह किया था कि वे दुनिया के दूसरे देशों के अभिजात वर्ग की गलतियों से सबक लें और अमीरों पर भारी कर लगायें व आर्थिक रूप से आरक्षण के बारे में सोचें.
बढ़ती असमानता के इस परिदृश्य को नोबेल विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज भी अपनी पुस्तक ‘प्राइस आॅफ इनइक्विलिटी’ में अमेरिकी संदर्भ में ज्यादा स्पष्ट करते हैं. उनका कहना है कि आय की असमानता जिस गति से बढ़ती है, उससे कहीं ज्यादा गति से संपत्ति की असमानता बढ़ती है.
हाल में अमेरिकी आय की वृद्धि मुख्य रूप से ऊपर के एक प्रतिशत वालों के लिए हो रही है, लेकिन असमानता में यह वृद्धि महज आय के मामले में ही नहीं है, बल्कि वह स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में है. अमेरिकी मध्यवर्ग खोखला हो रहा है और यह धारणा मिथक साबित हो रही है कि अमेरिका अवसरों का देश है. इसी आर्थिक स्थिति को स्टिग्लिट्ज ने तब राजनीतिक भाषा में कहा था, जब अमेरिका में अकूपाइ वाॅल स्ट्रीट आंदोलन चल रहा था. उस समय लिखे गये उनके लेख का अर्थ यह है कि असमानता लोकतंत्र को नाकारा बना रही है.
असमानता बढ़ने के इस खतरे को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी मानने लगा है. उसका कहना है कि अगर असमानता ज्यादा बढ़ेगी, तो विकास की रफ्तार घट जायेगी. आइएमएफ के अध्ययन में कहा गया है कि अगर ऊपर के 20 प्रतिशत की आय में 1 प्रतिशत प्वाॅइंट की वृद्धि हुई, तो विकास दर 0.08 प्रतिशत प्वाॅइंट घट जायेगी. लेकिन, अगर नीचे के 20 प्रतिशत तबके की आय बढ़ी, तो विकास दर बढ़ेगी. अगर निचले तबके के लोगों की आय घटेगी, तो उनकी सेहत खराब होगी, वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पायेगा, जिसका उत्पादकता पर असर पड़ेगा.
इन बातों को भारत के रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर डाॅ रघुराम राजन 2010 में अपनी पुस्तक ‘इकाेनॉमिक इनइक्विलिटी कुड लीड टू फाइनेंसियल इनस्टेबिलिटी’ में रेखांकित करते हैं.
उनका कहना है कि अगर गरीबों की आय में कम वृद्धि होगी, तो इससे उपभोग ठहर जायेगा और विकास दर पर नकारात्मक असर पड़ेगा. भारत की आर्थिक असमानता के बारे में अगर 2004-5 में असंगठित क्षेत्र पर तैयार की गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी यह कहती है कि देश के 84 करोड़ लोग 20 रुपये रोजाना पर गुजर करते हैं, तो हाल में आये जनगणना के आंकड़े तकरीबन इतने ही लोगों की 30 रुपये रोजाना के व्यय का जिक्र करते हैं. असमानता की यह काली छाया नवउदारवादी विकास की चमक को फीका कर रही है.
फीलगुड और अच्छे दिनों के नारे महज अस्मिताओं और सभ्यताओं के संघर्ष में उलझ कर रह जा रहे हैं. उम्मीद बस इतनी ही है कि दुनिया में सोच के स्तर पर उसी पूंजीवादी समाज के भीतर से असमानता पर चर्चा तेज हो रही है, जिसने वामपंथ के पतन के साथ या तो इसे खारिज कर दिया था या फिर तरक्की के लिए असमानता को जरूरी तत्व मान लिया था.

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