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चुनाव के चलते न बिगड़े सद्भाव
परंजॉय गुहा ठकुरता राजनीतिक विश्लेषक इस साल देश में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से पश्चिम बंगाल भी एक है. पिछले दिनों बंगाल में जो कुछ भी हुआ है, मालदा की घटना की खबर जिस तरह से आयी है, उससे यही लग रहा है कि बंगाल में सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश […]
परंजॉय गुहा ठकुरता
राजनीतिक विश्लेषक
इस साल देश में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से पश्चिम बंगाल भी एक है. पिछले दिनों बंगाल में जो कुछ भी हुआ है, मालदा की घटना की खबर जिस तरह से आयी है, उससे यही लग रहा है कि बंगाल में सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है.
बंगाल में छिटपुट हिंसक घटनाएं होती रहती हैं. बीते दिनों की घटनाओं में किसी के हताहत न होने की खबर से थोड़ी राहत मिली है कि राज्य प्रशासन ने धैर्य से काम किया. प्रशासन की जरा सी चूक होने और किसी के हताहत होने पर इस घटना को सांप्रदायिक मान लिया जाता और विभाजनकारी शक्तियां इस अपनी कुटिल राजनीति करतीं. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, इस ऐतबार से मेरा अंदाजा यह है कि इस बार के बंगाल चुनाव में अगर हिंसक घटनाएं होती भी हैं, तो वह सांप्रदायिक यानी हिंदू-मुसलिम के बीच नहीं होंगी, बल्कि वाम कार्यकर्ताओं और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच होंगी. इसी बीच इसकी भी संभावना से इनकार नहीं है कि इन पार्टीजनित घटनाओं को सांप्रदायिक शक्तियां हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसा की संज्ञा देकर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ें और मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ी करने की कोशिशें करें. ऐसे में ममता बनर्जी के लिए यह चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वह सत्ता में हैं. चुनाव के दौरान सत्ता में होने के अपने फायदे-नुकसान हैं, इसलिए ममता बनर्जी को अपनी कुशल राजनीति का परिचय देना होगा.
पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा के मद्देनजर देखें, तो 1940 के दशक में वहां हिंदू-मुसलमान के बीच जिस तरह की सांप्रदायिक हिंसा हुई थी, वैसी हिंसा कहीं और नहीं हुई. उसके बाद का बंगाल छिटपुट घटनाओं के बीच शांति बनाये रहा. ममता बनर्जी के सत्ता में आने के पहले 34-35 साल तक बंगाल में जो वाम मोर्चे की सरकार रही, उसमें मुसलमानों का समर्थन और वोट वाम मोर्चे को मिलता रहा.
यही वजह है कि चुनावों के समय मुसलमानों को लेकर बंगाल में राजनीतिक सरगर्मी थोड़ी तेज हो जाती है. वाम कमजोर होने लगा, तो उसके जनाधार से मुसलमान वोट छिटकने लगा और मौजूदा परिस्थिति में बंगाल के ग्रामीण इलाकों के मुसलमान ममता बनर्जी के साथ हैं और आगे भी रहेंगे, इसकी पूरी उम्मीद है.
मुझ लगता है कि यही वह स्थिति है, जिसके चलते भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये मुसलिम वोटों का बिखराव चाहती है. राज्य में चुनाव से पहले हिंसक घटनाओं को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. हालांकि, भाजपा इसमें कामयाब नहीं हो पायेगी, क्योंकि जनाधार के मामले में बंगाल में वह बेहद कमजोर है. लेकिन, चूंकि वह केंद्र की सत्ता में है, इसलिए खुद को राज्य में मजबूत करने की पूरी कोशिश करेगी, जैसा पहले दिल्ली और बिहार में वह कर चुकी है.
जहां तक इस राज्य के चुनावी नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर होनेवाले परिणामों की बात है, तो मैं समझता हूं कि इसका कोई खास असर नहीं पड़ेगा. क्योंकि बंगाल में मुख्य लड़ाई ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और वामदलों के बीच है. अगर वामदलों और कांग्रेस के बीच कोई गंठबंधन या समझौता होता है, तो लड़ाई जबरदस्त हो जायेगी. हालांकि, वामदलों के सभी नेता कांग्रेस से समझौते को तैयार नहीं हैं, इसलिए इस पर अभी कुछ कहना भी उचित नहीं है.
लेकिन यह अनुमान जरूर है कि वाम और कांग्रेस के गंठबंधन के बाद भी ममता बनर्जी का पलड़ा भारी रहेगा. क्योंकि कांग्रेस की स्थिति भी बंगाल में भाजपा के जैसी ही कमजोर है. कांग्रेस अपनी कमजोरी को समझते हुए ही चाहेगी कि वाम अौर कांग्रेस का गंठबंधन हो, लेकिन वाम का कुछ हिस्सा इसके लिए अभी तैयार नहीं है. वाम नेतृत्व में भी कुछ ही लोग चाह रहे हैं कि यह गंठबंधन हो जाये. अगर यह गंठबंधन होता है, तो इसका कुछ फायदा तृणमूल कांग्रेस को भी मिलेगा.एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि वामदल और तृणमूल कांग्रेस दोनों भाजपा के खिलाफ हैं.
ऐसे में अगर वामदल और तृणमूल कांग्रेस दोनों में से किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, तो ये दोनों एक हो सकती हैं, क्योंकि ये दोनाें भाजपा-विरोधी पार्टियां चाहेंगी कि भाजपा राज्य में मजबूत न होने पाये. भाजपा इस बात को जानती है, इसलिए वह वहां ध्रुवीकरण की कोशिश करेगी. भाजपा को इस बात को भी भुनाना है कि केंद्र में उसकी सरकार है, तो बाकी राज्यों में भी उसकी ही सरकार बने. लेकिन, बिहार की तरह बंगाल में भी वह इसमें कामयाब नहीं हो पायेगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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