21.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

दुधारी तलवार है यह कानून

।। प्रमोद जोशी।। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) यह कानून हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं करता, बल्कि सिद्धांत रूप में जहां हिंदू अल्पसंख्या में होंगे, वहां उन्हें इस कानून का लाभ मिलेगा. लेकिन उन इलाकों में जहां संख्या का अंतर ज्यादा नहीं है, किस तरह से कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं है. कई जगह अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों […]

।। प्रमोद जोशी।।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

यह कानून हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं करता, बल्कि सिद्धांत रूप में जहां हिंदू अल्पसंख्या में होंगे, वहां उन्हें इस कानून का लाभ मिलेगा. लेकिन उन इलाकों में जहां संख्या का अंतर ज्यादा नहीं है, किस तरह से कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं है. कई जगह अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच 60:40 का अनुपात है. कई जगह अनुसूचित जाति-जनजाति को बहुसंख्यक माना जायेगा और व्यावहारिक रूप से जब उन्हें जातीय आधार पर लक्षित किया जायेगा तो वे अल्पसंख्यक हो जायेंगे.

हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों पर विचार-विमर्श के दौरान कुछ लोगों ने इस बात को उठाया था कि केंद्र सरकार ने सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक को पास कर दिया होता, तो यह हिंसा नहीं हो पाती. लेकिन, व्यावहारिक सच यह है कि इस कानून को पास कराना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. हाल में केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने संकेत दिया था कि सरकार ने इस कानून पर काम शुरू कर दिया है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान खान का कहना है कि इस मामले में आम सहमति बनाने की कोशिश हो रही है. जेडीयू के नेता केसी त्यागी ने इस कानून का विरोध करने वाले नरेंद्र मोदी की आलोचना की है. क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि उनकी पार्टी इस विधेयक को पारित कराने में मदद करेगी? इस कानून का प्रारूप राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने तैयार किया है.

प्रस्तावित कानून के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारों को जिम्मेदारी दी गयी है कि वे अनुसूचित जातियों (एससी), जनजातियों (एसटी), धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके की गयी हिंसा को रोकने और नियंत्रित करने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करें. इस मसौदे में हिंसा की परिभाषा, सरकारी कर्मचारियों द्वारा कर्तव्य की अवहेलना की सजा और कमांड का दायित्व भी तय किया गया है. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने 14 जुलाई 2010 को इस विधेयक का खाका तैयार करने के लिए एक प्रारूप समिति का गठन किया था और 28 अप्रैल 2011 की एनएसी की बैठक के बाद नौ अध्यायों और 135 धाराओं में इसे तैयार किया गया. 22 जुलाई 2011 को यह सरकार को सौंप दिया गया.

राज्यों का विरोध

इस मामले में सबसे बड़ा पेच केंद्र-राज्य संबंध है. सितंबर 2011 में राष्ट्रीय एकता परिषद की 13वीं बैठक में इस पर बात ही नहीं हो पायी थी, क्योंकि कई राज्यों के मुख्यमंत्री इसके खिलाफ थे. बैठक में पांच मुख्यमंत्री शामिल नहीं हुए थे. नरेंद्र मोदी का शामिल न होना समझ में आता था, क्योंकि यह विधेयक गुजरात जैसी परिस्थिति को सामने रख कर ही बनाया गया है. लेकिन ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता और नीतीश कुमार भी नहीं आये. विधेयक के खिलाफ भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री तो बोले ही, भाजपा से रास्ता अलग कर लेनेवाले ओड़िशा के नवीन पटनायक भी बोले. तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता भी इसके पक्ष में नहीं हैं. अब उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार है, लेकिन मुलायम सिंह ने इसके बारे में खुली राय जाहिर नहीं की है. बीते गुरुवार को सपा नेता रामगोपाल यादव ने इस विधेयक पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुए कहा कि ऐसे किसी विधेयक के पेश होने की इस बार संभावना नहीं है. कांग्रेस तब किस आधार पर इस विधेयक को संसद में पेश करना चाहती है?

गहरे राजनीतिक निहितार्थ

सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ साल 2005 का एक विधेयक पहले से राज्य सभा में पड़ा है. उसके मुकाबले एनएसी के इस प्रारूप विधेयक के तेवर काफी तीखे हैं और इसके राजनीतिक निहितार्थ भी काफी गहरे हैं. हालांकि यूपीए को इस मामले में सीपीएम तक का समर्थन तक नहीं मिला है. सीपीएम सांप्रदायिकता के खिलाफ कानून बनाने के पक्ष में तो है, लेकिन उसकी दुविधा है कि यह मामला देश की संघीय भावना के खिलाफ भी जा रहा है. सांप्रदायिक हिंसा को कानून-व्यवस्था का मामला माना जाता है, जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है. प्रस्तावित विधेयक से यह मामला सीधे केंद्र सरकार के पाले में आ जायेगा.

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में इस विधेयक पर विचार के दौरान संविधान के अनुच्छेद 355 और 356 के अधीन कार्रवाई करने की सलाह भी दी गयी. यानी यदि राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा रोकने में दिक्कत हो, तो केंद्र हस्तक्षेप करे. सांप्रदायिक हिंसा कानून के इस मसौदे में अल्पसंख्यकों को ‘समूह’ कहा गया है. ये अल्पसंख्यक समूह धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इन समूहों की रक्षा के लिए यह कानून प्रस्तावित है. इसके तहत अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों की रक्षा के उपबंध भी हैं.

इसमें यह भी व्यवस्था है कि यदि किसी पर हिंसा का आरोप लगता है, तो उसके लिए साक्ष्य आरोप लगानेवाले को नहीं देने हैं, बल्कि जिस पर आरोप है, उसे खुद को निदरेष साबित करना होगा.

जहां फर्क कम है, वहां क्या?

यह कानून हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं करता, बल्कि सिद्धांत रूप में जहां हिंदू अल्पसंख्या में होंगे, वहां उन्हें इस कानून का लाभ मिलेगा. लेकिन उन इलाकों में जहां संख्या का अंतर ज्यादा नहीं है, किस तरह से कार्रवाई होगी, यह स्पष्ट नहीं है. कई जगह स्थिति ऐसी है कि अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच 60:40 का अनुपात है. कई जगह अनुसूचित जाति-जनजाति को बहुसंख्यक माना जायेगा और व्यावहारिक रूप से जब उन्हें जातीय आधार पर लक्षित किया जाएगा तो वे अल्पसंख्यक हो जायेंगे. यह भी स्पष्ट नहीं है कि एक से अधिक अल्पसंख्यक समूहों के बीच टकराव की स्थिति में क्या होगा.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस बात को इस रूप में रख रही है कि इस कानून की मानें तो सांप्रदायिक हिंसा केवल बहुसंख्यक वर्ग ही करता है. सांप्रदायिक दंगों के आंकड़े यही बताते हैं कि अस्सी से नब्बे फीसदी दंगा-पीड़ित मुसलमान और कुछ जगहों पर ईसाई होते हैं. ऐसे में पुलिस का व्यवहार भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ होता है. इसकी वजह यह भी है कि पुलिस बलों में अल्पसंख्यकों की संख्या बेहद कम है.

असुरक्षित अल्पसंख्यक मन को संतोष

इस कानून का राजनीतिक लाभ कांग्रेस उठा पायेगी या नहीं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी अपने बिछुड़े हिंदू आधार को वापस पाने की कोशिश जरूर करेगी. वर्ग विशेष के खिलाफ दुर्भावना, घृणा और दुष्प्रचार रोकने के लिए भी सरकार को विशेष अधिकार प्राप्त होंगे. लेकिन इसके नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का प्रयास भी हो सकता है.

असुरक्षित अल्पसंख्यक मन को संतोष देने के लिए यह विचार सही है, लेकिन लगता है कि इसकी व्यावहारिकता के बारे में ज्यादा सोचा नहीं गया है. अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समूहों की भी होती है. यदि शुरु आत से ही उन्हें दो समूहों में बांट देंगे, तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं.

देश में सांप्रदायिक सद्भाव तैयार करने के लिए राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव प्राधिकरण भी बनाने का प्रस्ताव है. इसके सात में से चार सदस्य इन अल्पसंख्यक समूहों के होंगे. प्राधिकरण के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी इन समूहों के होंगे.

पेचीदगियां कम नहीं हैं

इस विधेयक के विरोधियों का कहना है कि यदि कोई हिंसा मुसलमानों और अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों के मध्य होती है, तो उस स्थिति में यह कानून मुस्लिमों का साथ देगा और इस प्रकार दलितों की रक्षा के लिए बना हुआ दलित एक्ट भी अप्रभावी हो जायेगा. प्रस्तावित विधेयक की धारा छह में स्पष्ट किया गया है कि इस विधेयक के अंतर्गत अपराध उन अपराधों के अलावा है जो अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अधीन आते हैं. विधेयक के विरोधी पूछते हैं कि क्या किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित किया जा सकता है?

धारा सात के अनुसार सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में बहुसंख्यक समुदाय से संबद्ध महिला के साथ बलात्कार होगा, तो यह इस कानून के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा. बहुसंख्यक महिला ‘समूह’ की परिभाषा में नहीं आएगी. भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) के तहत वह बलात्कार होगा, लेकिन इस कानून के अंतर्गत नहीं.

इसी प्रकार धारा आठ के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी ‘समूह’ या ‘समूह’ से संबंध रखनेवाले व्यक्ति के विरुद्ध घृणा फैलायेगा तो अपराध माना जायेगा. ‘समूह’ द्वारा बहुसंख्यकों के विरु द्ध घृणा फैलाने की स्थिति में यह विधेयक मौन है.

दंड का प्रावधान

धारा 12 में सरकारी कर्मचारी द्वारा किसी ‘समूह’ से जुड़े व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाने, मानसिक अथवा शारीरिक चोट पहुंचाने को अपराध माना गया है. वहीं प्रस्तावित कानून की धारा 13 में सरकारी कर्मचारी को इन अपराधों के बाबत अपनी ड्यूटी निभाने में ढिलाई बरतने के लिए सजा का प्रावधान है. धारा 14 में उन अफसरों को दंड देने का प्रावधान है जो सुरक्षा बलों पर नियंत्रण रखते हैं और अपने अधीन लोगों पर नियंत्रण रखने में असफल रहते हैं. धारा 15 में कहा गया है कि किसी संगठन का कोई वरिष्ठ व्यक्ति अथवा पदाधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियंत्रण रखने में नाकामयाब रहता है, तो यह उसके द्वारा किया गया अपराध माना जायेगा.

(बीबीसी हिंदी से साभार)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें