सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज एके गांगुली पर एक लॉ इंटर्न के द्वारा यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बाद इस मामले में स्थितियां तेजी से बदली हैं. उन स्थितियों को भांपने में तृणमूल कांग्रेस से भले तनिक देरी हुई हो, पर उसकी यह मांग अपनी जगह दुरुस्त है कि जस्टिस गांगुली को पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए.
इससे पहले यही मांग जद यू, एनसीपी और भाजपा भी कर चुकी है. यह बात अलग है कि भाजपा की ओर से सुषमा स्वराज ने जस्टिस गांगुली से इस्तीफे की मांग की, जबकि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इसे गैर-जरूरी माना. लॉ इंटर्न के आरोपों के सार्वजनिक होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लिया और मुख्य न्यायाधीश ने इसकी जांच के लिए तीन सदस्यों की समिति गठित कर दी. सवाल इस समिति पर भी उठ रहे हैं, क्योंकि इसका गठन विशाखा मामले में जारी दिशा-निर्देशों के अनुकूल नहीं हुआ है.
एक तर्क यह भी है कि स्त्री-सशक्तीकरण के नारे-मुहावरे को बल प्रदान करने के लिहाज से जांच समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी चाहिए. ध्यान देने की एक बात यह भी है कि जांच समिति के बनने और उसके समक्ष पेश होने के बावजूद जस्टिस गांगुली ने अब तक अपने मौजूदा पद से इस्तीफा देने की पेशकश नहीं की है, जबकि उनके कार्यालय के आगे लोगों ने विरोध-प्रदर्शन भी किया है. पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी या फिर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की बातों पर गौर करें, तो लगता है कि कानूनी तौर पर जस्टिस गांगुली को मौजूदा पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
बहरहाल, कानून की मर्यादाएं बड़े हद तक सामाजिक मर्यादाओं की नियामक होती हैं, तो यह भी सच है कि सामाजिक मर्यादाओं से कानून की मर्यादाएं स्वयं भी नियमित होती हैं. जस्टिस गांगुली यदि पश्चिम बंगाल के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर बने रहते हैं, तो इससे उनके द्वारा निभायी जा रही भूमिका को लेकर लोगों के मन में शंका रहेगी. दर्पण को हमेशा स्वच्छ होना होता है, ताकि वह लोगों को उनका असली चेहरा दिखा सके. मानवाधिकार आयोग न्याय का एक ऐसा ही दर्पण है और उसे स्वच्छ बनाये रखने का तकाजा है कि जस्टिस गांगुली अपने पद से इस्तीफा दे दें.