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ऐतिहासिक कदम
एक सजग राष्ट्र के लिहाज से यह स्थिति अच्छी नहीं कही जायेगी कि किसी प्रशासनिक पद को भरने की अपनी जिम्मेवारी के निर्वहन में विधायिका के विफल रहने पर न्यायपालिका को यह जिम्मेवारी उठानी पड़े. लेकिन, बीते कुछ महीनों में यूपी सरकार को कई बार वक्त देने और फटकार लगाने के बाद, हाइकोर्ट के रिटायर्ड […]
एक सजग राष्ट्र के लिहाज से यह स्थिति अच्छी नहीं कही जायेगी कि किसी प्रशासनिक पद को भरने की अपनी जिम्मेवारी के निर्वहन में विधायिका के विफल रहने पर न्यायपालिका को यह जिम्मेवारी उठानी पड़े.
लेकिन, बीते कुछ महीनों में यूपी सरकार को कई बार वक्त देने और फटकार लगाने के बाद, हाइकोर्ट के रिटायर्ड जज वीरेन्द्र सिंह को राज्य का नया लोकायुक्त नियुक्त करने का सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की जनभावना के अनुरूप ही माना जायेगा.
पिछले साल यूपी के तत्कालीन लोकायुक्त रिटायर्ड जस्टिस नंदकिशोर मेहरोत्रा ने यह कह कर सबको चौंका दिया था कि भ्रष्टाचार किसी एक व्यक्ति के चाहने से खत्म नहीं हो सकता. सभी को इसका प्रण लेना होगा. भ्रष्टाचार निवारण के उद्देश्य से बनी सबसे बड़ी संस्था के प्रधान के मुंह से ऐसी बात निकलना चौंकानेवाला इसलिए था, क्योंकि इसमें एक बेचारगी झलकती है.
ऐसा प्रतीत होता है, मानो भ्रष्टाचार को अंकुश में रखनेवाली संस्था का प्रधान खुद कह रहा हो कि यह काम सिर्फ उसके बस का नहीं. लोकायुक्त के रूप में जस्टिस मेहरोत्रा का रिकाॅर्ड गवाह है कि जब भी मौका आया, उन्होंने सराहनीय काम किये. यूपी लोकायुक्त की वेबसाइट पर दर्ज है कि पद पर रहते उन्होंने सरकारी अधिकारियों, मंत्रियों और विधायकों के बारे में आयी शिकायतों की जांच की और उनकी जांच रिपोर्ट के आधार पर ही 2010 में एक मंत्री और 2011 में पांच मंत्री पद से हटाये गये.
राज्य के कई अन्य मंत्री उनकी रिपोर्ट के आधार पर तफ्तीश के घेरे में आये. असल में, यूपी सहित कई राज्यों में लोकायुक्त की बेचारगी इस प्रावधान में छिपी है कि वे भ्रष्टाचार निवारण की तरफ कोई भी कदम तभी बढ़ा सकते हैं, जब राज्य की विधायिका, खासकर मुख्यमंत्री, ऐसा चाहता हो.
तब के मुख्यमंत्री मायावती ने चाहा, तो जस्टिस मेहरोत्रा सम्मानपूर्वक जिम्मेवारी निभा सके. अब के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनका मंत्रिमंडल नहीं चाहता कि यूपी को ईमानदारी से दायित्व निर्वाह करनेवाला मजबूत लोकायुक्त मिले. इसलिए बात सुप्रीम कोर्ट की फटकार और अंततः अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त अधिकारों के इस्तेमाल तक पहुंची.
सुप्रीम कोर्ट को यह आपातिक कदम नहीं उठाना पड़ता, अगर मुख्यमंत्री, इलाहाबाद हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और राज्यपाल के बीच नये लोकायुक्त के नाम पर सहमति बन गयी होती. यूपी के लोकायुक्त अधिनियम के अनुसार लोकायुक्त के नाम का फैसला इन तीनों के अलावा प्रमुख विपक्षी दल के नेता मिल कर करते हैं.
पिछले साल मुख्यमंत्री ने लोकायुक्त के रूप में रिटायर्ड जस्टिस रवींद्र सिंह यादव का नाम सुझाया था, लेकिन राज्यपाल को यह नाम पसंद नहीं था. इसलिए फाइल कई दफे कैबिनेट को लौटायी गयी. राज्यपाल का पक्ष था कि नेता प्रतिपक्ष और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश राजी होंगे, तभी जस्टिस रवींद्र सिंह यादव के नाम पर वे मुहर लगायेंगे.
इस पर सत्ताधारी दल ने हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लोकायुक्त की चयन प्रक्रिया से ही बाहर कर दिया. इसके लिए विधानसभा में लोकायुक्त और उप लोकायुक्त संशोधन विधेयक पारित कराया गया और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की जगह विधानसभा के स्पीकर को चयन समिति का सदस्य मान लिया गया.
तब 27 सितंबर को इलाहाबाद हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि नया अधिनियम बनने के बाद पुरानी चयन समिति कारगर मानी जायेगी भी या नहीं, इस पर वैधानिक राय ले ली जाये. चीफ जस्टिस के इस रुख के चलते नाम पर फैसला नहीं हो सका और बात आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की फटकार और लोकायुक्त नियुक्त कर देने तक पहुंच गयी.
भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए देश में मजबूत लोकपाल और राज्यों में मजबूत लोकायुक्त की अब तक की सारी लड़ाई इस बात को आगे रख कर लड़ी गयी है कि उसकी नियुक्ति और काम में विधायिका दखल नहीं दे सके. लेकिन, इस पूरे प्रकरण से स्पष्ट है कि मजबूत लोकायुक्त के चयन को लेकर विधायिका असहज है. सरकार का मनचाहा लोकायुक्त होगा, तो सरकार की इच्छा के मुताबिक काम करेगा, शायद यही मंशा रही होगी यूपी सरकार की.
हालांकि, ऐसी मंशा से कई अन्य राज्य भी नहीं उबरे हैं. ताजा मामला दिल्ली का है, जहां मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अपने जनलोकपाल बिल में विधानसभा के स्पीकर का नाम चयन समिति के सदस्यों में शामिल किया और राजनीति से बाहर के दो विशिष्ट व्यक्तियों के नाम शामिल करने से इनकार कर दिया.
इससे पहले राजस्थान, गुजरात, पंजाब सहित कई राज्यों के लोकायुक्त से जुड़े प्रकरण संकेत करते हैं कि विधायिका लोकायुक्त जैसी भ्रष्टाचार निवारण संस्था को भी अपने इशारे पर ही चलाना चाहती है. शायद यही कारण है कि शीर्ष पदों पर जारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनांदोलन तो समय-समय पर होते रहते हैं, लेकिन सत्ता बदलने के बावजूद उसका चरित्र बदलते नहीं दिखता.
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