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असुरक्षित रेलयात्रा!
‘सच बोलो, प्रिय बोलो, सत्य अप्रिय हो तो ना बोलो’- जब बात सामाजिक संबंधों को बचाने की हो तो संस्कृत की यह उक्ति भले ठीक जान पड़े, पर मसला नागरिक और राज्यसत्ता के संबंधों का हो, तो सच बोलना जरूरी है, भले वह कितना ही कड़वा क्यों ना हो. लेकिन, हमारे लोकतंत्र में हाल के […]
‘सच बोलो, प्रिय बोलो, सत्य अप्रिय हो तो ना बोलो’- जब बात सामाजिक संबंधों को बचाने की हो तो संस्कृत की यह उक्ति भले ठीक जान पड़े, पर मसला नागरिक और राज्यसत्ता के संबंधों का हो, तो सच बोलना जरूरी है, भले वह कितना ही कड़वा क्यों ना हो. लेकिन, हमारे लोकतंत्र में हाल के वर्षों में ज्यादातर इसका उल्टा हो रहा है.
राजनीतिक दल सत्ता में होने पर अपनी उपलब्धियां गिनते नहीं थकते और सत्ता से बाहर होने पर नागरिकों से उनका ज्यादातर संवाद सपने दिखानेवाली भाषा में होता है. मीठबोलुआ राजनीति के इस दौर में कड़वा सच ज्यादातर अदालतों के मुंह से या फिर कैग सरीखी निगरानी संस्थाओं के जरिये सामने आ रहा है. मिसाल के लिए भारतीय रेलवे को ही लें.
ट्रेनों में सुविधा का सरकारी वादा इतना लुभावना हो चला है कि सुरक्षित यात्रा के सवाल पर हम तब तक नहीं जागते, जब तक कोई बड़ी दुर्घटना न हो जाये. लेकिन, सीएजी ने रेलवे में बढ़ती ढांचागत खामियों से आंखें मूंद कर बुलेट ट्रेन के सपने दिखानेवाली राजनीति के इत्मिनान को यह कह कर तोड़ने की कोशिश की है कि खस्ताहाल रेल-पुलों के पुनर्निर्माण और उम्र समाप्त कर चुके पुलों की जगह नये पुल बनाने में हो रही देरी यात्रियों के जीवन के लिए गंभीर खतरा है. देश में 1.36 लाख से ज्यादा रेलवे-पुल हैं. इनमें 147 पुल कभी भी भड़भड़ाकर गिर सकते हैं. इन्हें 2013 में ही रेल-नेटवर्क से बाहर किया जाना चाहिए था, पर कैग के मुताबिक इनमें से 92 पुल पांच रेल-जोन में अब भी नेटवर्क का हिस्सा बने हुए हैं.
रेल मंत्रालय ने 2003 में अपने श्वेत पत्र में माना था कि 51 हजार रेलवे-पुल 19वीं सदी के हैं और 56 हजार रेलवे-पुल 80 साल से ज्यादा पुराने हो चुके हैं. लेकिन, खस्ताहाल रेल-पुलों के पुनर्निर्माण की रफ्तार कुछ ऐसी है कि मरम्मती की जरूरतवाले किसी पुल की पहचान आज होती है, तो मरम्मत कार्य का अनुमोदन पौने चार साल बाद होता है. ऐसी लापरवाही केवल पुलों तक ही सीमित नहीं है.
कुछ साल पहले खन्ना समिति ने कहा था कि देश में 25 प्रतिशत से ज्यादा रेलवे ट्रैक अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं, जिन्हें जल्द-से-जल्द बदला जाना चाहिए. इसी समिति ने 34 हजार मालवाहक डिब्बों, करीब डेढ़ हजार रेलकोच के अलावा 262 रेल-पुलों को तुरंत बदलने की बात भी कही थी. अब जरूरत खन्ना समिति और सीएजी की चेतावनी से जागने और भारतीय रेलवे के आधारभूत ढांचे को यात्रियों के लिए सुरक्षित बनाने की है. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में नहीं डालेगी.
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