इस बहस में समुचित रूप से न तो संवैधानिक आदर्शों, मूल्यों एवं उपलब्धियों को रेखांकित किया जा सका है और न ही उन पर भारतीय राज्य के कहीं खरे उतरने या कहीं चूक जाने को लेकर कोई ईमानदार आत्ममंथन हो सका है. संविधान राष्ट्र की सर्वोच्च विधि-संहिता है, उस पर किसी दल-विशेष का विशेषाधिकार नहीं हो सकता. परंतु, संसद में दिये गये भाषण सदस्यों की राजनीतिक विचारधाराओं की अभिव्यक्ति बन कर रह गये हैं. संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द पर हुई बहस में इसके अर्थ को लेकर जो चर्चा हुई, उससे इस अवधारणा पर कोई नयी रोशनी नहीं पड़ी. ‘सेक्युलर’ का अनुवाद चाहे जो करें, उसका अर्थ संविधान में स्पष्ट है कि राज्य धार्मिक आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करेगा, उसकी दृष्टि में सभी धार्मिक विचार व समुदाय समान होंगे. यही अर्थ दशकों से एक मूल्य बन कर हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में गहरे तक पैठा हुआ है.
ऐसी बहसों और इतिहास में अपनी हिस्सेदारी चिह्नित करने के बजाय संविधान को अधिक कारगर बनाने के उपायों पर चर्चा करनी चाहिए थी. संसद देश की सर्वोच्च प्रातिनिधिक संस्था है और उसके माध्यम से ही जनता की इच्छा प्रतिध्वनित होती है. देश के सामने गरीबी, विषमता, जातिवाद, संप्रदायवाद, हिंसा, भ्रष्टाचार, अन्याय, राजकीय संस्थाओं की विफलताएं, संघीय ढांचे में असंतुलन जैसी अनेक गंभीर समस्याएं हैं.
बीते दशकों में केंद्र से लेकर राज्यों तक में अलग दलों और गठबंधनों की सरकारें रही हैं, पर देश अपने अपेक्षित और संभावित लक्ष्यों से अब भी बहुत दूर है. बहस के दायरे में इन आयामों का न होना एक बड़ी विफलता ही कही जायेगी. संविधान सभा में परस्पर विरोधी विचारधाराओं के प्रतिनिधि थे, पर उन्होंने अर्थपूर्ण बहसों के माध्यम से संविधान की रचना की. अच्छा होता अगर हमारी संसद उनके प्रतिमान का ईमानदारी से अनुसरण करती और अपने मतभेदों व राजनीतिक स्वार्थों को किनारे रख कर इस बहस को आत्मालोचना और दूरदृष्टि के साथ एक ऐतिहासिक अवसर बना देती, जो आनेवाले समय में उदाहरण और आदर्श का रूप लेता.