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गरीबी के आंकड़ों के विरोधाभास

सुभाष गाताडे सामाजिक कार्यकर्ता विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में अत्यधिक गरीबी के नीचे रहनेवाली आबादी वर्ष 2015 में घट कर 9.6 फीसदी हो गयी है. वर्ष 2012 में यह संख्या 12.8 फीसदी थी. वर्ष 1990 में जबसे विश्व बैंक ने यह आंकड़े इकट्ठा करने शुरू किये, तबसे पहली दफा ऐसी कमी दिखाई दी है. […]

सुभाष गाताडे

सामाजिक कार्यकर्ता

विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में अत्यधिक गरीबी के नीचे रहनेवाली आबादी वर्ष 2015 में घट कर 9.6 फीसदी हो गयी है. वर्ष 2012 में यह संख्या 12.8 फीसदी थी. वर्ष 1990 में जबसे विश्व बैंक ने यह आंकड़े इकट्ठा करने शुरू किये, तबसे पहली दफा ऐसी कमी दिखाई दी है. इसके बरक्स विश्व बैंक के ही मुताबिक, कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में नीचे है और एक तरह से सबसहारन अफ्रीकी देशों के साथ होड़ कर रहा है.

वर्ष 2014 की ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट को देखें, तो कम वजन के बच्चों की 128 देशों की फेहरिस्त में भारत 120वें स्थान पर है. यह पूछा जा सकता है कि ऐसा विरोधाभास क्यों दिखाई देता है, जहां एक तरफ ‘घटती गरीबी की तादाद’ और दूसरी तरफ ‘कुपोषित बच्चों की बढ़ती तादाद’!

निश्चित ही कहीं न कहीं कुछ झोल है. बारीकी से देखें तो पता चलता है कि यह सब नापने के तरीकों का मामला है. पहले अलग ढंग से गरीबी गिनी जाती थी और अब नये तरीके से गरीबी आंकी जा रही है. गरीबी के आंकड़ों में आती कमी से यह कोई भ्रम में न रहे कि लोग अमीर हो गये हैं.

याद कीजिए, ‘नये आर्थिक सुधारों’ के शिल्पकार पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री के दौर को, जब योजना आयोग ने गरीबी के आकलन को एकदम घटा दिया था. उस दौर में गरीबों की तादाद 37 फीसदी से 19 फीसदी तक घोषित की गयी थी. सवाल उठता है कि नापने के तरीकों में हेर-फेर करके गरीबों की संख्या को कम क्यों और कैसे दिखाया जा सकता है?

अगर हम विश्व बैंक के तरीकों पर लौटें, तो देख सकते हैं कि पहले गरीबी नापने के लिए दो तरीके मौजूद थे : एक, यूनिफार्म रेफरेंस पीरियड और दूसरा, मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड. वर्ष 1993-94 तक पहली पद्धति चलती थी, जिसके अंतर्गत लोगों को खाने-पीने की चीजों पर खर्चे को लेकर बीते एक माह के बारे में पूछा जाता था.

वर्ष 1999-2000 से दूसरी पद्धति से इन आंकड़ों को संग्रहित किया जा रहा है, जिसके अंतर्गत उन पांच चीजों पर साल भर के अंतराल पर आंकड़े इकट्ठा किये जाते थे. और अब एक नयी पद्धति मॉडिफाइड मिक्स्ड रेफरेंस पीरियड का प्रयोग हो रहा है, जिसके अंतर्गत खाने-पीने की कुछ चीजों के लिए तीस दिन के बजाय सात दिन का अंतराल, कम प्रयुक्त कुछ चीजों के लिए एक माह के बजाय एक साल का अंतराल का प्रयोग हो रहा है. इसके अंतर्गत उपभोग के खर्चों का अधिक सटीक आकलन किया जा सकता है.

चाहे विश्व बैंक की कवायद हो या यहां देश के कर्णधारों के प्रयास हों, कुल मिला कर गरीबी रेखा तय करने का एक अजीब खेल चल रहा है. यूपीए सरकार के दौरान गरीबी रेखा के नीचे पड़े लोगों को चिह्नित करने के लिए सरकार एवं योजना आयोग द्वारा जो पैमाने चुने गये थे, उन्हें लेकर सुप्रीम कोर्ट में बहस भी चली थी.

विगत बीस वर्षों में देश में गरीबी रेखा को परिभाषित करने को लेकर कई सारे आकलनों से हम गुजरे हैं.

कुछ साल पहले तेंदुलकर कमेटी ने बताया कि भारत की 37 फीसदी आबादी गरीबी में जी रही है. इसके पहले अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने बताया था कि भारत की 77 फीसदी आबादी प्रतिदिन 20 रुपये से अधिक खर्च नहीं कर पाती. सरकार द्वारा ही गठित एनसी सक्सेना कमेटी ने बताया कि गरीबों की तादाद 50 फीसदी है. सक्सेना कमेटी का गठन सरकार ने इसीलिए किया था कि वह उन नये पैमानों को तय करे कि कौन से घर गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं.

सक्सेना कमेटी ने गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले लोगों को जानने के लिए नये पैमाने प्रस्तावित किये थे- औसत प्रति व्यक्ति खर्च जो शहरों में एक हजार रुपये प्रति माह और गांव में 700 रुपये प्रति माह या पक्के मकान या दोपहिया वाहन या ट्रैक्टर जैसे संसाधन की मालकियत. इन निष्कर्षों से चिंतित होकर सरकार ने कहा कि कमेटी को पैमाने तय करने के लिए कहा गया था न कि गरीबों की संख्या तय करने के लिए. वहीं योजना आयोग ने सक्सेना कमेटी को लिखा कि अगर हम गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की संख्या 50 फीसदी कहेंगे, तो हमें उन सभी के लिए अनुदान का इंतजाम करना पड़ेगा, जिसके आर्थिक नतीजे प्रतिकूल होंगे.

आप किसी भी रूप में समझने की कोशिश करें, अपनी आर्थिक वृद्धि पर इतराते भारत में गरीबी बढ़ रही है तथा उसी से जुड़ कर भूखे लोगों की तादाद भी छलांग लगा रही है. भले ही अब आप गिनती के तरीकों में उलट-फेर करके उसे अच्छा दिखाने की कोशिश करें.

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