।।कृष्ण प्रताप सिंह।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
प्रियंका गांधी के राजनीति में आने, चुनाव लड़ने और तारणहार बन कर देशभर में कांग्रेस प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार करने की चर्चाएं एक बार फिर आम हैं. पिछले दो लोकसभा चुनावों से ऐसी चर्चाएं होती आ रही हैं. अलबत्ता, इस बार इनकी शुरुआत कुछ अलग ढंग से हुई है. पहले एक पुस्तक आयी, जिसमें कहा गया कि सोनिया गांधी 2016 में राजनीति से संन्यास ले लेंगी, जिसकी बिना पर प्रेक्षकों ने अंदाजा लगाया कि तब प्रियंका उनके संसदीय क्षेत्र रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी. लेकिन अब कहा जा रहा है कि भाजपा या नरेंद्र मोदी की बढ़त को रोकने के लिए राहुल गांधी की एंग्री यंगमैन छवि गढ़ने में लगी कांग्रेस के पास इतने इंतजार का वक्त नहीं है. डॉ मनमोहन सिंह द्वारा आदर्श उम्मीदवार बताये जाने के बावजूद उसने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया है, तो इसके पीछे उनकी मोदी से सीधी भिड़ंत टालने की चालाकी ही नहीं है. वह ऐन वक्त पर अपनी दूसरी ट्रंपकार्ड प्रियंका गांधी को मैदान में उतार कर मौजूदा राजनीति के सारे समीकरणों को तहस-नहस कर सकती है.
यों, कांग्रेस ऐसी किसी संभावना को नकारती हुई कह रही है कि प्रियंका की जो भी भूमिका है, सोनिया व राहुल के निर्वाचन क्षेत्रों में ही है. लेकिन सोनिया हों, राहुल, प्रियंका या कांग्रेस के प्रवक्ता, वे प्रियंका के राजनीति में आने से जुड़े सवालों का सीधा जवाब नहीं देते. सोनिया व राहुल कह देते हैं कि इस बारे में प्रियंका से ही पूछा जाना चाहिए और प्रियंका यह पूछ कर सवाल को पत्रकारों पर ही पलट देती हैं कि वे ही बतायें कि उन्हें राजनीति में आना चाहिए या नहीं, या कि कब और क्यों आना चाहिए. एक बार जरूर उन्होंने कहा था कि उचित समय पर इस बाबत सोचेंगी. लेकिन नहीं मालूम कि वह उचित समय कब आयेगा.
वैसे उनके आने या न आने का बड़ा महत्व सिर्फ इस अर्थ में है कि नेहरू-गांधी परिवार के करिश्मे में विश्वास रखनेवाली कांग्रेस को सोनिया और राहुल से निराशा की हालत में उन्हीं में उम्मीद की किरणों दिखाई देती हैं. कई कांग्रेसियों को उनमें इंदिरा गांधी की छवि दिखाई देती है और वे चाहते हैं कि ‘अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका’ को अब देश के डंके का रूप दिया जाये. अनौपचारिक तौर पर वे कहते भी हैं कि हाजिरजवाबी और नेतृत्व के दूसरे गुणों के लिहाज से वे राहुल से बीस हैं. उन्हें याद है कि पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी ने जब कांग्रेस को सवा सौ साल की बुढ़िया करार दिया था, तो इसी प्रियंका ने पलट कर पूछा था-क्या मैं बुढ़िया दिखाई देती हूं?
अब उनके परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र फूलपुर की शहर कांग्रेस कमेटी ने पार्टी हाइकमान से मांग की है कि वह प्रियंका को वहां से चुनाव लड़ाये. उसकी मानें तो मइया यानी सोनिया बीमार रहती हैं, भइया यानी राहुल पर भार बढ़ गया है और मोदी के मंसूबों को पछाड़ कर केंद्र में तीसरी बार कांग्रेस की सरकार बनवाने के लिए उनका उम्मीदवार व स्टार प्रचारक बनना जरूरी है. पिछले चुनाव में सुल्तानपुर के कांग्रेसियों ने प्रियंका के अनिच्छुक होने पर उनके पति रॉबर्ट बाड्रा को ही वहां से चुनाव लड़ाने की मांग की थी. कांग्रेस में ऐसी मांगों के पीछे स्वामीभक्ति प्रदर्शन की भावना होती है. इसी के तहत रायबरेली और अमेठी के कांग्रेसी मांग करते रहते हैं कि प्रियंका उन्हीं की होकर रहें.
लेकिन दो और सवाल हैं, जो कांग्रेसियों को दुविधाओं, असमंजसों, आशंकाओं व विरोधाभासों के हवाले किये दे रहे हैं. पहला यह कि क्या राहुल व प्रियंका दोनों कार्डो का एक साथ इस्तेमाल ठीक होगा? और दूसरा यह कि प्रियंका राष्ट्रीय नेता बन गयीं, तो राहुल का क्या होगा? आज की राजनीति में परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं रह गया है, लेकिन पार्टी का एक बड़ा हिस्सा दोनों को एक साथ मैदान में उतारने का विरोधी है. उसके पास इसके तर्क भी हैं. कांग्रेस ने मैदान मार लिया, तो सारा श्रेय प्रियंका के खाते में जायेगा. अन्यथा राहुल के साथ उनका तिलिस्म भी टूट जायेगा और कांग्रेस अपने आखिरी शरण्य से भी वंचित हो जायेगी. दोनों हालत में राहुल के नायकत्व को भारी नुकसान होगा.
फिलहाल कांग्रेस कहे कुछ भी, वह खुश है कि प्रियंका की चर्चा ने मोदी से कई सुर्खियां छीन ली हैं. जैसी कि उसकी आदत है, अभी वह इतने से ही खुश रहेगी. प्रियंका के आने या न आने की साफ घोषणा कर अपने विपक्ष को उनकी काट ढूंढ़ने या निश्चिंत होने का मौका नहीं देगी. उसे पता है कि प्रियंका आयेंगी, तो विपक्ष उनके पति के भ्रष्टाचार को भी मुद्दा बनायेगा. यह भी कि वह मोदी को नीति आधारित चुनौती देने की हालत में नहीं हैं और व्यक्तित्व आधारित चुनौती से ही काम चलाना पड़ेगा. प्रियंका ऐसी चुनौती का उपकरण हो सकती हैं!