जब नाजायज धन ही चुनाव का मुख्य अस्त्र बन जायेगा, तब उसके परिणाम क्या होंगे? इसीलिए सत्ता पर धन के वर्चस्व के लिए सर्वहारा के नेतृत्व और तानाशाही की कल्पना की गयी थी, लेकिन वह कोई आदर्श लोक बनाने में सक्षम नहीं हो पाया.
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की बेटी की शादी की विदाई के पहले ही केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) ने उनके 11 ठिकानों पर एक-साथ छापे मारे, जो आय से अधिक संपत्ति से संबद्ध थे. वे स्वतंत्रता के बाद देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं, सत्ता में रहते हुए जिन पर छापे की कार्रवाई की गयी है. इस कार्रवाई से जहां विपक्षी दल उनके इस्तीफे की मांग कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस का रुख प्रतिकूल है. उसका तर्क है कि जब परंपराओं और वास्तविकताओं के विपरीत राजनीतिक बदले की भावना से सीबीआइ का इस्तेमाल हो रहा है, तब इस्तीफे की जरूरत ही नहीं है.
व्यवस्थाएं कोई भी हों, दोषों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सकतीं. दोषों से निपटते हुए व्यवस्था के संचालन में लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है, जिस पर करोड़ों नजरें लगी होती हैं, इसलिए जिसे हम लुकाछिपी मानते हैं, वह भी देर-सबेर खुले बिना नहीं रह जाता. इसलिए यदि लोकतंत्र में विभिन्न दबावों और स्वार्थों के संघर्ष की विद्यमानता, उसे प्राप्त करने के लिए साधनों का उपयोग, फिर इसके लिए राजनेताओं की कमजोर नस की पहचान और उन पर दबाव होगा, तो उनकी शुद्धता में भी खोट आ सकती है, इसे बचाये रखना बड़े साहस, शौर्य और गौरव की बात है.
राजनीति की सबसे कमजोर नस सत्ता पाने की तराजू है, जिसमें निर्णायक बहुमत के लिए अपेक्षित मतों का जुड़ाव हो. अब सवाल है कि सत्ता के संचालकों के पास जो भारी भीड़ जमती है, क्या इन सभी का उद्देश्य जनहित की रक्षा या अपने स्वार्थों का बचाव है? इस भीड़ के मूल्यांकन में तो यही दिखता है कि अधिकतर लोग स्वार्थों की पूर्ति में सहायक बनाने के लिए ही सबसे अधिक उद्यमशील रहते हैं और इसके लिए तरह-तरह के दबाव भी आते हैं. पैसे का दबाव भी उनमें से एक है, जो व्यक्ति की कमजोरियों को भुनाने में सहायक होता है. भ्रष्टाचार, बेईमानी, दगाबाजी यह सब इसी व्यवस्था से उपजे हैं यानी व्यवस्थाजन्य दोषों को दूर करना वैयक्तिक आधार पर संभव नहीं है.
जब हम इन पर विचार कर रहे हों, तो व्यवस्था के दोषों, अच्छाइयों, बुराइयों और संभावनाओं पर भी दृष्टि डालनी होगी. इस रूप में जब हमने समाज का मूल और निर्णायक तत्व पूंजी को मान लिया है और जब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे, तो हमें लक्ष्मी और सरस्वती के बैर को भी याद रखना पड़ेगा. इसका प्रभाव कहां-कहां, कितना-कितना पड़ा है. और जब पहचान के लिए राजनीतिक वंश की खोज होगी, तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि यह किसी एक तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस व्यवस्था और इसे संचालित करनेवाली हमारी राजनीति ही दोषों से पूर्ण हो गयी है. फिर सवाल यह उठेगा कि क्या जिन चुनावों के माध्यम से हम लोकतंत्र की उत्कृष्टता बनाना चाहते हैं, वह ईमानदारी पर आधारित है या कालेधन की अर्थव्यवस्था पर? जब नाजायज धन ही चुनाव का मुख्य अस्त्र बन जायेगा, तब उसके परिणाम क्या होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. इसीलिए सत्ता पर धन के वर्चस्व के लिए सर्वहारा के नेतृत्व और तानाशाही की कल्पना की गयी थी, लेकिन वह संसार से परे होकर कोई आदर्श लोक बनाने में सक्षम नहीं हो पाया.
आदर्श लोक की परिकल्पना में जब भ्रष्टाचार के आरोप में किसी दल का अध्यक्ष भी गिरफ्तार होेगा, तो अन्य दलों की स्थिति तो यही मानी जायेगी कि इन बुराइयों से मुक्त होने की परिकल्पना स्वागत योग्य हो सकती है. लेकिन क्या वास्तव में यही स्थिति है? सत्ता को आदर्श बनाने की घोषणाएं, जनता का उत्थान, गरीबी से मुक्ति के जो प्रश्न चुनावों से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाये जाते हैं, क्या इस अभीष्ट के प्राप्त न होने के पीछे बुराइयों को दूर करने के लिए हमने दंडात्मक व्यवस्था का सहारा लिया है? नहीं.
इसलिए मानना यही पड़ेगा कि हम वास्तविक स्रोतों की पहचान नहीं कर पाये हैं. इसलिए राज्य व्यवस्था के संचालन में साधनों का दुरुपयोग और असहमत या विपक्षी लोगों के खिलाफ उनके उपयोग का बढ़ना सहज और स्वाभाविक स्थिति है. इसके लिए आत्ममंथन करना पड़ेगा कि हमारे सुख की परिकल्पनाएं जितना ही साधनों पर आधारित होंगी, उतना ही दुरुपयोग की प्रवृत्तियां भी बढ़ेंगी. इसलिए वीरभद्र के मामले में भी कब, क्या और कैसे हुआ, इसके लिए लोकतंत्र में विश्वास रखनेवालों को समाधान ढूंढना पड़ेगा और सबसे पहले तो निर्वाचन पद्धति ही ऐसी बनानी होगी जो वास्तविकताओं पर आधारित हो, झूठी परिकल्पनाओं पर नहीं.
शीतला सिंह
संपादक, जनमोर्चा
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