पिछले वर्ष तीन अक्तूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता से सीधे संवाद स्थापित करने के लिए रेडियो के माध्यम से ‘मन की बात’ संबोधन का सिलसिला शुरू किया था. रविवार, 20 सितंबर को इस मासिक कार्यक्रम का 12वां संस्करण प्रसारित हुआ. इस मासिक संबोधन के लिए रेडियो चयन करने का विशेष कारण यह था कि इस माध्यम की पहुंच देश की 90 फीसदी आबादी तक है.
पहले कार्यक्रम के बाद किये गये सर्वेक्षण में बताया गया था कि छह शहरों में 66.7 फीसदी लोगों ने इस संबोधन को सुना था. विभिन्न रिपोर्टों की मानें, तो महानगरों से लेकर दूर-दराज के गांवों तक बहुत बड़ी संख्या में लोग इस कार्यक्रम को सुनते हैं. इस संबोधन की पहुंच और प्रभाव का आकलन इस तथ्य से भी किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री द्वारा किये गये निवेदनों पर जनता के हर वर्ग से सकारात्मक प्रतिक्रिया आती है तथा प्रधानमंत्री कार्यालय को लाखों की संख्या में सुझाव आते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक विरोधी और आलोचक भी उनके व्यक्तित्व में उपस्थित आशावाद, आत्मविश्वास तथा संकल्प शक्ति के कायल हैं. इन गुणों की झलक ‘मन की बात’ में भी अक्सर परिलक्षित होती है. अपनी पहलों और सरकार की योजनाओं में जनता को सीधे भागीदार बनाकर उन्होंने हमारे लोकतंत्र में नयी ऊर्जा और उत्साह का संचार किया है. खादी की बिक्री में भारी वृद्धि और रसोई गैस के अनुदान को स्वेच्छा से छोड़ने की प्रक्रिया को मात्र आर्थिक दृष्टि से देखना ठीक नहीं होगा. यह राष्ट्र-निर्माण में आम जन की बढ़ती भागीदारी के ठोस संकेत हैं. कभी उन्होंने बेटियों के प्रति लगाव के महत्व को रेखांकित किया है, तो कभी विद्यार्थियों को अंधी प्रतियोगिता से बचते हुए लगन से अध्ययन करने के महत्व को समझाया है. इन कार्यक्रमों में जहां उन्होंने महापुरुषों की पावन स्मृति पर बात की है, वहीं साधारण भारतीयों के अनुकरणीय कार्यों को भी गिनाया है. पर्यटन, कौशल, शिल्प और स्वच्छता जैसे विषयों पर उनकी संवादधर्मिता ने सरकार और समाज को एक पटल पर खड़ा कर दिया है.
विपक्ष या समीक्षकों द्वारा ‘मन की बात’ की आलोचनाएं अपनी जगह सही हो सकती हैं, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस कार्यक्रम को प्रधानमंत्री ने विशुद्ध राजनीतिक मंच के रूप में इस्तेमाल नहीं किया है. साल भर में इन 12 संबोधनों में कभी भी उन्होंने कोई नीतिगत घोषणा नहीं की है और न ही कोई लोकलुभावन वादा किया है. सरकारी पहलों और योजनाओं को सफल बनाने और उनका लाभ पूरे देश में पहुंचाने की कोशिश में उन्होंने जनता के सीधे जुड़ाव को ही सुनिश्चित किया है. युवाओं में नशे की लत पर चिंता जाहिर करने के साथ उन्होंने सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए लोगों को जागरुक होने का आह्वान ही किया है. जीवन में उत्सवधर्मिता, शांति की भावना, योग, व्यायाम, मनोरंजन और फुरसत के क्षणों के महत्व का उल्लेख किया है. इन संबोधनों के जरिये उन्होंने भारतीय जन-जीवन के विभिन्न आयामों का स्पर्श किया है.
यही कारण है कि उनके निवेदन प्रभावी भी होते हैं और लोग उनकी बात सुनने के लिए उत्सुक भी रहते हैं. प्रधानमंत्री भी जन भागीदारी के महत्व से भली-भांति परिचित हैं. तभी तो उन्होंने कहा, ‘सरकारों को भी सबक सीखना होगा कि हमारी सरकारी चौखट में जो काम होता है, उसके बाद एक बहुत बड़ी जन-शक्ति का एक सामर्थ्यवान, ऊर्जावान समाज है. सरकारें जितनी समाज से जुड़कर चलती हैं, उतनी ज्यादा समाज में बदलाव के लिए एक अच्छी केटेलिटिक एजेंट के रूप में काम कर सकती हैं.’ समाज की गतिशीलता के प्रभाव का अनुमान दो दिन पूर्व लखनऊ की घटना से लगाया जा सकता है. सड़क के किनारे जमीन पर बैठकर हिंदी टंकण के जरिये अपनी जीविका चलानेवाले एक बुजुर्ग के साथ पुलिस अधिकारी के दुर्व्यवहार की तसवीर सोशल मीडिया पर इतनी चर्चित हुई कि इसके दबाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को तुरंत दोषी अधिकारी को निलंबित करना पड़ा तथा उच्च अधिकारियों को उस बुजुर्ग के घर भेजकर नया टाइपराइटर देना पड़ा. एक बेहतर देश बनाने के लिए एक जागरूक समाज सबसे बड़ी जरूरत है. लखनऊ की घटना इस चेतना की उपस्थिति का शानदार उदाहरण है. लेकिन यह भी बड़ी चिंता की बात है कि सोशल मीडिया पर ऐसे तत्व भी सक्रिय हैं, जो तकनीक का प्रयोग समाज में अशांति, भय और झूठ का वातावरण पैदा करने के लिए कर रहे हैं.
गलत तसवीरों और सूचनाओं को वे तथ्य के रूप में प्रस्तुत कर भ्रम और भ्रांति फैलाते हैं. ऐसे तत्व हर राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों तथा विचारधाराओं से संबद्ध हैं. ऐसी गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए प्रशासनिक और कानूनी सक्रियता तो आवश्यक है, पर अगर प्रधानमंत्री अपने ‘मन की बात’ संबोधन में इन खतरनाक हरकतों को रोकने और लोगों को सावधान रहने की अपील कर दें, तो इसका सकारात्मक असर हो सकता है.