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अंगरेजी में कमजोर होने का खामियाजा
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया आप में से जो गुजरात में पटेलों के आंदोलन पर गौर करते रहे हों, उनसे मेरे दो सवाल हैं. पहला, यह आंदोलन बाकी भारत, खासकर देश के दूसरे शहरों में क्यों नहीं फैल पा रहा है, जहां 25 वर्ष पहले ऐसे ही विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं? दूसरा, […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
आप में से जो गुजरात में पटेलों के आंदोलन पर गौर करते रहे हों, उनसे मेरे दो सवाल हैं. पहला, यह आंदोलन बाकी भारत, खासकर देश के दूसरे शहरों में क्यों नहीं फैल पा रहा है, जहां 25 वर्ष पहले ऐसे ही विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं? दूसरा, यदि यह मुंबई, दिल्ली तथा बेंगलुरु में फैल जाये, तो आरक्षण का विरोध करनेवाले किस भाषा में बातें करेंगे?
पटेलों की दो मांगें हैं : हमें भी आरक्षण दें, अथवा आरक्षण को पूरी तरह समाप्त कर दें. यह दूसरा पहलू एक मध्यवर्गीय शहरी मांग है और तब से ही मौजूद है, जहां तक मेरी स्मृति जाती है. जब गुजरात के शहरों में लाखों लोग पटेलों की मांगों का समर्थन कर रहे हैं, तो फिर यह आग फैल क्यों नहीं रही है?
2012 में जब ‘गुजरात मॉडल’ की अवधारणा पहली बार सामने आयी, तो मैंने लिखा था कि भारत के कुल घरेलू उत्पाद में देश के सेवाक्षेत्र का योगदान 59 प्रतिशत है, जबकि गुजरात में कुल घरेलू उत्पाद में गुजरात के सेवाक्षेत्र का योगदान केवल 46 फीसदी है, जो राष्ट्रीय औसत से 13 प्रतिशत नीचे है.
इसके उलट, इसमें गुजरात के उद्योगों का योगदान 41 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय 30 प्रतिशत से काफी अधिक है. यह स्थिति हमेशा से ऐसी ही रही है. गुजरात उसी उर्वरता से प्रथम श्रेणी के उद्योगपति पैदा करता है, जिससे बंगाल कलाकारों को जन्म देता है. गुजरात में जिस चीज की कमी रही है, वह दरअसल नयी अर्थव्यवस्था के पैसे हैं; अरबों डॉलर की वह रकम, जिसे पश्चिमी दुनिया से शेष शहरी भारत हासिल कर रहा है.
कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी ने इसका विश्लेषण किया है कि क्यों सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) तथा सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सेवाएं (आइटी इनेबल्ड सर्विसेज) जो भारतीय शहरों के लिए रोजी-रोटी का जरिया हैं, गुजरात से गायब हैं.
यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि केपीएमजी के शब्दों में ‘गुजरात जमीन-जायदाद की कम कीमतों तथा मुआवजे के निचले स्तर की वजह से अपेक्षाकृत निम्न परिचालन लागत की सुविधा प्रदान करता है’. मोदी ने भी इस समस्या को खासतौर से सुलझाने की कोशिश की थी. केपीएमजी ने कुछ नीतिगत पहलों की सलाह दी जैसे, 1- आइटी पार्क का विकास करनेवालों के लिए स्टांप शुल्क की माफी तथा सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सेवाओं के लिए रियायतें, 2- सेज (विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों) का विकास, जो विभिन्न वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करते हैं, 3- परिचालन के आरंभ से लेकर पांच वर्ष तक के लिए विद्युत कर के भुगतान से मुक्ति, 4- विद्युत आपूर्ति में कटौती से मुक्ति और 5- श्रम कानूनों का सरलीकरण. मगर इसके नतीजे उत्साहवर्धक नहीं रहे. क्या वजहें थीं? केपीएमजी ने इस प्रश्न का जवाब देते हुए बताया कि ‘आइटी तथा सूचना प्रौद्योगिकी समर्थित सेवाओं के विकास के लिए सबसे अहम जरूरत प्रतिभा कोष (टैलेंट पूल) की है, जिसकी गुजरात में कमी है.’ केपीएमजी के अनुसार, ऐसा दो वजहों से है : ‘इंजीनियरिंग संस्थानों की कमी’ तथा ‘अंगरेजी में निपुणता की कमी.’
और इस तरह, भारत के कुछ सबसे अच्छे बुनियादी ढांचे, कुछ सबसे अच्छी सड़कें, बिजली की 24 घंटे उपलब्धता तथा सुशासन के बावजूद गुजरात शिक्षा की वजह से इस समृद्धि का लाभ उठाने से वंचित रह गया है. बेंगलुरु में, जहां मैं रहता हूं, विद्युत आपूर्ति में रोजाना नियमित रूप से सुबह और शाम दो-दो घंटे की कटौती होती है.
मुझे यकीन है कि प्रभात खबर के पाठकों के राज्यों में विद्युत आपूर्ति हेतु बेंगलुरु से बेहतर बुनियादी ढांचे उपलब्ध हैं. मगर जैसा मैंने अपने पिछले कॉलम में लिखा था, जो अंगरेजी जानते हैं, उन लोगों के लिए यहां समृद्धि के प्रचुर मौके उपलब्ध हैं और काम करने के लिए यहां पर्याप्त लोगों का मिलना मुश्किल है. इसी में उन दोनों सवालों के जवाब अंतर्निहित हैं, जिन्हें मैंने इस लेख के शुरू में ही आपके सामने रखा था.
मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, गुड़गांव और नोएडा में विरोध प्रदर्शन इसलिए नहीं हो रहे हैं, क्योंकि उन शहरों के युवाओं के सामने विकल्प उपलब्ध हैं. वे दूसरी जगहों की अपेक्षा यहां आसानी से सफेद कॉलर काम पा सकते हैं. 25 वर्ष पूर्व की अपेक्षा आज प्राइवेट सेक्टर में उनके लिए जॉब के कहीं ज्यादा मौके मौजूद हैं. इस सप्ताह मैं अपने कार्यालय की एक बैठक में शामिल था, जिसमें हम आइटी पेशेवरों के वेतनमान पर चर्चा कर रहे थे. उसी दरम्यान यह पता चला कि यहां सबसे बुनियादी और प्रवेशस्तर के जॉब में, जिसमें कंप्यूटर की केवल काम करने योग्य जानकारी की जरूरत होती है, 30,000 रुपये प्रतिमाह का वेतन मिलता है. इसके लिए भी पर्याप्त संख्या में लोगों का मिलना मुश्किल होता है, क्योंकि उनकी मांग काफी अधिक है.
बड़ी तादाद में यहां के लोग इस तरह के जॉब पा सकते हैं, क्योंकि उनके पास अंगरेजी की जानकारी होती है, जो उन्हें वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ती है. यह एक ऐसी चीज है, जो गुजरात में अधिकतर युवाओं के लिए उपलब्ध नहीं है, जिसकी एक वजह यह है कि सरकारी स्कूलों की कक्षा पांच तक वहां अंगरेजी की पढ़ाई नहीं होती है.
भारत के दस सबसे बड़े शहरों में शामिल अपने दो शहरों के साथ गुजरात एक ऐसा राज्य है, जहां भारत में सबसे अधिक शहरीकरण हुआ है. मैं एक टीवी चरचा में शामिल था, जिसमें मुझे यह बताया गया कि बंगाल जैसे कुछ दूसरे राज्यों में भी अंगरेजी निषेध की नीति लागू है अथवा कभी रही है.
मगर कोलकाता तो प्रतिभाओं के आयातक से कहीं अधिक बढ़ कर उनका निर्यातक है और यहां के सफेद कॉलर जॉब, खास कर प्रबंधन के क्षेत्रों में, बांग्ला का इस्तेमाल नहीं होता, क्योंकि यहां अंगरेजों की लंबी मौजूदगी की वजह से पूरे कोलकाता में ऊंचे स्तर के स्कूलों की स्थापना की गयी. यहां तक कि जब राज्य सरकार ने यहां की स्थितियों में परिवर्तन लाना शुरू किया, फिर भी यहां के बुनियादी ढांचे ने वह करना जारी रखा, जिसके लिए उसकी स्थापना की गयी थी.
मगर गुजरात में ऐसा नहीं हुआ. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने पर हुए आंदोलन तथा उदारीकरण की प्रक्रिया भारत में लगभग एक साथ घटित हुर्इं. गुजरात में चल रहा आंदोलन 25 वर्ष पुरानी घटनाओं की पुनरावृत्ति ही है.
हमें खुद से यह सवाल पूछना ही चाहिए कि आंदोलनकारी जिन चीजों से उद्वेलित हैं, उनमें इस दरम्यान क्यों कोई खास बदलाव नहीं आ पाया, जबकि देश के दूसरे शहरों में उनके समवयस्क आगे बढ़ने में कामयाब रहे.(अनुवाद : विजय नंदन)
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