झारखंड सरकार एक ओर विशेष राज्य का दर्जा मांग रही है, दूसरी ओर केंद्र से मिले धन को राज्य सरकार खर्च नहीं कर पा रही है. केंद्रीय राशि खर्च नहीं कर पाने की वजह भी साफ है. अफसर से लेकर विभागीय मंत्री तक योजनाओं के क्रियान्वयन में दिलचस्पी ही नहीं लेते हैं.
कई मामलों में तो मंत्री और अधिकारी दोनों स्तर पर लापरवाही जग जाहिर हो चुकीं हैं. सरकारी दस्तावेज ही बताते हैं कि एक दर्जन से अधिक विभाग ऐसे हैं, जहां आवंटित राशि का पचास प्रतिशत भी खर्च नहीं हो पा रहा है. सालों से पीएल एकाउंट में राशि पड़ी हुई है. योजनाओं का डीपीआर बन कर सालों से पड़ा हुआ है. यह तथ्य भी दर्जनों बार सामने आ चुके हैं कि एक ही योजना के लिए तीन से चार बार डीपीआर तैयार करना पड़ा है क्योंकि विभागीय सुस्ती के कारण योजना का प्राक्कलन बढ़ जाता है. अधिकारियों व मंत्रियों की इस सुस्ती के कारण राज्य के सभी शहरों में शहरी जलापूर्ति योजना का काम तीन-चार साल देर से चल रहा है. ऐसे में इन शहरों में रहने वालों को गंदा पानी पीना पड़ता है. इन शहरों में झारखंड की राजधानी रांची शहर भी शामिल है.
इसी तरह शहरी विकास विभाग की योजनाओं के लिए राशि सालों से पीएल एकाउंट में हैं. राशि खर्च नहीं होने का कोई उचित कारण भी नहीं बताया जाता है. विभागीय अधिकारियों की लापरवाही की कोई सीमा नहीं है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने झारखंड की कई योजनाओं का शिलान्यास किया था. इन योजनाओं में से किसी एक पर काम नहीं शुरू हुआ है. योजनाओं की प्रगति के संबंध में राष्ट्रपति भवन के पूछने पर यह पता चला कि कुछ ऐसी योजनाओं की शुरुआत करवा दी गयी है, जिसकी मंजूरी केंद्र ने नहीं दी थी. अफसोस की बात यह है कि इस तरह की लापरवाही करने वाले अधिकारियों के खिलाफ झारखंड में सख्त कार्रवाई नहीं होती है.
कुछ खास मामलों में बवाल होने पर कार्रवाई करने से पहले जांच करने की प्रक्रिया इस कदर लंबी हो जाती है कि मामला दब जाता है. बार-बार एजी की रिपोर्ट में झारखंड के अधिकारियों व विभागीय मंत्रियों की लापरवाही या अनदेखी का मामला सामने आता जरूर है, लेकिन एकाउंटबिलिटी तय नहीं होने के कारण यह सिलसिला चलता रहा है. झारखंड को विशेष दर्जा से पहले राज्य में बेहतर कार्य संस्कृति भी चाहिए, जिसकी मांग कोई नहीं करता है.