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चले बेटी बचाने का सांस्कृतिक आंदोलन

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार कोई नैतिक समाज ही ऐसी परिस्थितियों की सृष्टि कर सकता है कि उसमें रह कर अपमान का शिकार हुआ कोई व्यक्ति कुछ समय बाद सब-कुछ भूल कर सुखपूर्वक सोने लगे, जबकि उसे अपमानित करनेवालों के लिए आत्मग्लानि के बोझ से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाये. अनैतिक समाजों में तो अपमानित […]

कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
कोई नैतिक समाज ही ऐसी परिस्थितियों की सृष्टि कर सकता है कि उसमें रह कर अपमान का शिकार हुआ कोई व्यक्ति कुछ समय बाद सब-कुछ भूल कर सुखपूर्वक सोने लगे, जबकि उसे अपमानित करनेवालों के लिए आत्मग्लानि के बोझ से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाये.
अनैतिक समाजों में तो अपमानित होनेवाले के दिलोदिमाग में ही ऐसी धारणा पैठा दी जाती है कि अपने अपमान का कारण वह खुद ही है, इसलिए उसे चाहिए कि वह किसी और के बजाय खुद को ही इसकी सजा दे.
तब उसके लिए आत्महीनता के भाव और आत्मदाह जैसे विचारों से पिंड छुड़ाना आसान नहीं होता. उत्तर प्रदेश में हमीरपुर जिले की उस छात्र के लिए भी नहीं हुआ, जिसने दबंग शोहदों द्वारा अपमानित किये जाने के बाद खुद को आग लगा लिया.
उसका आत्मदाह हमारी व्यवस्था पर तो जोरदार तमाचा है ही, लेकिन इसकी चोट उन्हें भी महसूस करनी चाहिए, जो ऐसे वाकयों को महज कानून-व्यवस्था का मामला मान कर सरकारों को कोसने भर के लिए इस्तेमाल करते हैं और इनके खिलाफ व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत के समक्ष हाथ खड़े कर देते हैं.
यह जानते हुए भी कि प्रदूषित सामाजिक मानस ऐसे आंदोलनों से ही स्वस्थ हुआ करते हैं. वे समाज व संस्कृति में सुधार के आंदोलन ही थे, जो हमें अतीत की सती व कन्या शिशुओं के वध जैसी अमानवीयताओं के अंधकार से आगे ले आये.
आज लड़कियों को सॉफ्ट टारगेट समझ कर शोहदे उन पर झपट पड़ते हैं, तो इसके लिए जरूरी बल उस मानसिकता से ही उधार लेते हैं, जिसमें न उन लड़कियों की कोई गरिमा है, न ही सम्मान.
लड़कियों के पलट कर खड़ी हो जाने पर जो बदतमीज युवक पहले शर्मिदा होकर भाग जाते थे, अब बेशर्म होकर हेकड़ी दिखाते हैं, जबकि सामाजिक साहस ऐसी कायरता में बदल गया है कि कोई उनकी राह में आने का रिस्क नहीं लेता.
यह कायरता, महिला सशक्तीकरण के तमाम दावों के बावजूद, समझने नहीं देती कि बेटियों की सुरक्षा जितनी इस बात में है कि प्रधानमंत्री के कहने पर लोग अपनी बेटियों को पढ़ायें-बढ़ायें और उनके साथ ली गयी ‘सेल्फी’ कहीं पोस्ट करें, उससे ज्यादा इसमें है कि दूसरों की बेटियों को भी इंसान समङों. हां, बहुओं को भी.
दुर्भाग्य से आंतरिक लोकतंत्र से महरूम सत्ता की जनविरोधी राजनीति के चलते देश में एक ऐसी मूल्यहीन पीढ़ी सामने आ रही है, जो अपने सिवाय किसी को भी इंसान नहीं समझती.
इसलिए कई मां-बाप अपनी बेटियों के अपमानित होने पर शोहदों को सजा दिलाने की सोचने के बजाय बेटियों का घर से निकलना बंद कर देते हैं.
जाहिर है, इस सब से कई बार बेटियों का मनोविज्ञान गड़बड़ा कर रह जाता है और वे मौत को जीवन से बेहतर समझने लगती हैं. उन्हें समझना चाहिए कि जो सोच ऐसे शोहदों को पैदा करती है, उसके समक्ष आत्मसमर्पण करके उसे निर्बल नहीं किया जा सकता.
इसके लिए उसे आत्मसमर्पण के लिए विवश करने की राह चुननी पड़ती है, जो अनिवार्यत: सांस्कृतिक आंदोलनों से होकर ही गुजरती है.

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