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जिया वही, जो तट छोड़ लड़ा लहर से

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा बरसों पहले गांधी स्मृति में ‘त्रिकाल-संध्या’ के यशस्वी कवि भवानी प्रसाद मिश्र से अकसर मिलने जाता था. शाम में वे बहुत कुछ सुनाते थे, जीवन के अनुभव और संघर्ष की बातें. अपनी पुस्तक ‘त्रिकाल-संध्या’ मुझे देते हुए उन्होंने उस पर एक पंक्ति लिखी, जो अब तक मन पर अंकित है- […]

तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
बरसों पहले गांधी स्मृति में ‘त्रिकाल-संध्या’ के यशस्वी कवि भवानी प्रसाद मिश्र से अकसर मिलने जाता था. शाम में वे बहुत कुछ सुनाते थे, जीवन के अनुभव और संघर्ष की बातें. अपनी पुस्तक ‘त्रिकाल-संध्या’ मुझे देते हुए उन्होंने उस पर एक पंक्ति लिखी, जो अब तक मन पर अंकित है- ‘वही जिया, जिसने किया, सूरज की तरह नियम से, बेगार करने का हिया’.
अद्भुत संदेश छिपा है इस छोटी सी पंक्ति में. कुछ अच्छा करके बदले में मिलने की चाह हो, तो ऐसे किये का क्या करें? जीना तो उसी का है जो सूरज की तरह नियम से बिना किसी छुट्टी के सबको रोशनी बांटने की बेगार करता रहे, भले ही कुछ मिले या न मिले.
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया, यानी माटी से माटी मिल गयी, लेकिन उनका नाम और उनके विचार आनेवाली पीढ़ियों को भी स्पंदित करते रहेंगे.
उन पर बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ लिखा भी जायेगा, पर वे इस बात को पुन: सिद्ध कर गये कि अच्छाई का कोई विकल्प नहीं. आप जीवन में लाखों-करोड़ों रुपये कमा लीजिए- जो अनेक राजनेता और उद्योगपति कमाते ही हैं- देश के विभिन्न क्षेत्रों में नहीं, बल्कि विश्व के श्रेष्ठतम इलाकों में विलासिता के हर साधन से युक्त बंगले बनवा लीजिए, लेकिन एक दिन आप देखेंगे कि एक लंगोटी वाला तीन कपड़े पहने व्यक्ति जो कभी न विधायक रहा होगा, या जो जनता की आजादी के लिए नेलसन मंडेला की तरह बरसों जेल में संघर्ष करता रहा होगा, ऐसा फटेहाल व्यक्ति दुनिया की आंखों का तारा और जनता का लोकप्रिय आदर्श बन गया है.
अमर होने का अर्थ है कि जब आप देह रूप में नहीं भी हैं, तब भी लोग अपने नाम की, आपकी कृति की प्रशंसा के साथ चर्चा करें, आपका नाम और जीवन दूसरों को वैसा ही अच्छा काम करने की प्रेरणा दे. दीनदयाल उपाध्याय कभी संसद सदस्य नहीं बने, राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और श्यामाप्रसाद मुखर्जी करोड़पति नेताओं में नहीं गिने जाते. लेकिन, हजार करोड़पति एवं अरबपति आये और चले गये, उनका नाम भी कोई नहीं जानता, पर अमर वे ही रहे जो अपने अलावा दूसरों के लिए जिये और मरे. आज के राजनेता अपार समृद्धि और पाखंड में लिपटे जनसेवा की बात करते हैं, तो वे भूल जाते हैं कि जनता उनसे ज्यादा अक्लमंद होती है. आज शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता होगा, जिसके पास तीन-चार सौ करोड़ की संपत्ति न हो. लेकिन सम्मान आज भी वही ले जाते हैं, जो दरिद्र जनता के साथ एकात्मता स्थापित कर पाते हैं.
गांधीजी के चरणों में बड़े-बड़े उद्योगपति माथा नवाते थे, पर उन्होंने कभी गरीब भारतीयों के साथ अपने संबंध, अपनी आत्मीयता पर आंच नहीं आने दी. उद्योगपतियों के नाम बहुत कम लोग जानते होंगे, लेकिन अपने हाथ से सूत कातनेवाले, झाड़ू-बुहारी और शौचालय साफ करनेवाले गांधी महात्मा बन गये. आज तो किसी बड़े नेता को अपने हाथ से चिट्ठी लिखते देखा ही नहीं जा सकता. गांधीजी सुबह पांच बजे से पत्रों के उत्तर स्वयं देते थे. मैंने अटल बिहारी वाजपेयी को भी साधारण, अनजान, अजनबी कार्यकर्ताओं की चिट्ठियों के उत्तर अपने हाथ से देते देखा है. आज के युग में चिट्ठी की तो मृत्यु ही हो गयी है. अब सचिव लोग इतनी बेरुखी और सरकारी घमंड के साथ चिट्ठियों की पावती भेजते हैं कि मन में आता है कि उनके पास जाकर कहा जाये कि, भाई साहब, अगर इतनी ही बेरुखी से ये पंक्तियां भेजनी थीं, तो अच्छा होता आप चिट्ठी भेजते ही ना.
अब्दुल कलाम उस राजकीय अहंकार को तोड़नेवाले राष्ट्रपति थे, जो ब्रिटिश गुलामी की जूठन की तरह वायसराय की याद दिलाते हुए राष्ट्रपति भवन में पसरी हुई थी. प्रोटोकॉल? भाड़ में गया तुम्हारा प्रोटोकॉल, जो भारत की जनता का किसी मायावी शिष्टाचार के नियमों तले अपमान करे. वहां की हर चीज में ब्रिटिश राज की दरुगध है. सब शिष्टाचार वही है, जो वायसराय के समय होता था. आजादी पायी, लेकिन आजाद देश ने अपने प्रोटोकॉल और शिष्टाचार नहीं ढूंढ़े. अब्दुल कलाम ने उन सबको तोड़ा. राष्ट्रपति भवन साधारण जनता के लिए खोला. मुसलिम होते हुए भी दारा शिकोह की तरह उपनिषदों और भगवद्गीता का भक्तिपूर्वक अध्ययन किया. अपने सैकड़ों भाषणों में वे भारतीय सभ्यता के प्राचीन स्वर उद्धृत करते थे. उनकी अंतिम पुस्तक स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुख स्वामी के जीवन और विचार पर थी. वे अपने उस कथन के प्रतीक बन गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘जो तट से ममता तोड़ता है, वही अथाह सागर की संपदा पा सकता है’. कितनी बड़ी बात है. तट के बने रहोगे तो तट पर ही तो पड़े रहोगे. तट छोड़ोगे तभी तो आकाश या सागर का ओर-छोर नाप सकोगे.
अब्दुल कलाम ने संपूर्ण भारतीयता को जिया, जो भेदरहित और सीमारहित थी. भेद और पूर्वाग्रह एक दिन की सुर्खियां दिला सकते हैं, जैसे उन लोगों को मिली, जिन्होंने भारत की हर स्तरीय न्यायपालिका और न्यायाधीशों को धताते हुए तथा भारत की तमाम जांच एजेंसियों को मूर्ख मानते हुए 257 भारतीयों के रक्त से रंगे हाथ वाले व्यक्ति को माफी देने की मांग के कागज पर हस्ताक्षर किये. उनकी आंखों में 257 भारतीयों की रक्तरंजित देहों तथा उनके विलाप करते बच्चों, बूढ़े माता-पिता, पत्नी के कारुणिक चित्र नहीं उभरे, बल्कि नामुराद वोट बैंक का मसला उन्हें देश पर हमला करनेवाले के साथ में खड़ा कर गया.
दुख इस बात का होता है कि इस देश में जो स्वयं को सेक्यूलर तथा स्वतंत्रचेता न्याय के पक्षधर कहते हैं, वे ही सबसे ज्यादा सांप्रदायिकता एवं पक्षपात करते हुए दिखते हैं. क्या किसी अपराधी का कोई मजहब माना जा सकता है, सिवाय इसके कि वह अपराधी है? क्या भारत की संपूर्ण न्यायपालिका को अपने-अपने पूर्वाग्रहों पर कस कर स्वयं को उससे बेहतर न्याय देनेवाले जो घोषित करते हैं, उन्हें देश का मित्र और न्याय का पक्षधर कहा जा सकता है? आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस व्यक्ति को देश की सर्वोत्तम और साधन संपन्न राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अपराध में लिप्त पाया, जिसे बीस साल का समय मिला स्वयं को निदरेष सिद्ध करने के लिए और न्याय का हर दरवाजा जिसके लिए आधी रात को भी खुला, उसके पक्ष में जो लोग खड़े हुए, उन्होंने उन 257 लोगों को एक बार भी याद नहीं किया, जो याकूब मेमन के षड्यंत्र के कारण असमय अपनी जान गंवा बैठे. क्या वे भारतीय नहीं थे?
जो दूसरों के लिए जिया, वो तट छोड़ कर लहरों से लड़ा और अमर हो गया. जो नफरत में सना, वह न खुदा का रहा न खुदा के बंदों का.

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