विश्वनाथ सचदेव
संपादक, नवनीत
मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव-छंदेड़ा के एक युवक ने एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो हमारे जनप्रतिनिधियों को शर्मसार कर सकता है- बशर्ते उनमें गैरत हो. 34 वर्षीय युवक गंगाराम ने जिला कलेक्टर को एक पत्र लिख कर यह आग्रह किया है कि उसका नाम गरीबी रेखा की सूची में से काट दिया जाये.
2002 से गंगाराम का नाम बीपीएल की सूची में दर्ज है, पर अब वह इतना कमाने लगा है कि उसे लग रहा है कि इस सूची में होने के लाभ किसी और के लिए छोड़ देना चाहिए. गंगाराम लगभग दस हजार रुपये महीना कमा रहा है और उसे लगता है- ‘अब मैं खुद को गरीब क्यों समझूं. अब मैं गरीब होने की कुंठा से मुक्त होना चाहता हूं.’
मां, पत्नी और दो बच्चों के परिवार को पालनेवाले गंगाराम ने गांव में हर वह काम किया है, जिससे वह दो पैसे कमा सके. उसने अनुसूचित छात्रवास में रह कर पढ़ाई की थी. हाल ही में उसने बीए की डिग्री प्राप्त की है.
इसी बीच उसने चित्रकारी के अपने शौक को परवान चढ़ाया. उसकी जिंदगी बदली, सोच भी बदली.
जब हर तरफ से सरकारी सहायता को हड़पने की खबरें आ रही हों, सांसद डेढ़ रुपये की दाल और 29 रुपये की पूरी थाली मिलने को अपना अधिकार बता रहे हों, ऐसे समय में किसी गंगाराम का स्वयं को गरीब कहलवाना शर्म की बात लगे, इसे एक शुभ संकेत ही माना जाना चाहिए. अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता, पर ऐसी शुरुआत कोई अकेला ही करता है. इस जज्बे का सम्मान होना चाहिए.
देश की आम जनता अच्छे दिन अनुभव कर सके, यह सरकार की बुनियादी जिम्मेवारी है. लेकिन, अच्छे दिन सिर्फ नारों से नहीं आते. इसके लिए हर स्तर पर ईमानदार कोशिश की दरकार होती है, और हमारी ऐसी हर कोशिश अब तक बौनी ही सिद्ध हुई है.
किसी गंगाराम का एक गरीब परिवार में जन्म लेने के बावजूद जिंदगी बेहतर बनाने के सपने देखना, उन सपनों को पूरा करने के लिए लगन और ईमानदारी से जुट जाना, पढ़ना, अपने सामथ्र्य के अनुसार स्थिति बेहतर बनाने के लिए हर संभव कार्य करना और उनमें सफल होना, यह सब बहुत प्रेरणादायक है.
इस प्रेरणा से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है किसी गंगाराम का गरीब कहलाने में शर्म महसूस करना. उतना ही महत्वपूर्ण है गंगाराम का यह सोच कि आर्थिक स्थिति में सुधार के बाद अब उसे उन सुविधाओं का लाभ नहीं लेना चाहिए, जो किसी और गरीब के काम आ सकती हैं.
सही है कि गरीबों की सूची में से एक नाम कट जाने से क्रांति नहीं हो जायेगी, पर क्रांति की शुरुआत ऐसे ही होती है. संभव है किसी सांसद को गंगाराम का उदाहरण यह समझा सके और वह कहे, अब मैं संसद की कैंटीन में मिलनेवाला सस्ता खाना नहीं खाऊंगा. शायद उसे देख कर बाकियों को भी कुछ शर्म आये.
शायद वेतन और भत्तों के रूप में लाखों रुपये प्रतिमाह कमानेवाले सांसद इस एक सब्सिडी का त्याग करके गंगाराम के साथ खड़े होना चाहें, उसके समकक्ष बनना चाहें. नहीं, गंगाराम, आसान नहीं लगता इस ‘शायद’ का वास्तविकता बन पाना. फिर भी, उम्मीद तो कर ही सकते हैं हम. सलाम गंगाराम!