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दो असहाय लोगों का मिलन

।। एमजे अकबर ।। वरिष्ठ पत्रकार मनमोहन सिंह और नवाज शरीफ के बीच मुलाकात एक विदा लेते मेमने और तश्रीफ ला रहे शेर की भेंट नहीं थी. यह दो असहाय लोगों का मिलन था. मनमोहन सिंह को अपनी साख को कमजोर करने में वर्षो का वक्त लगा. नवाज शरीफ ने कुछ महीनों में ही अपनी […]

।। एमजे अकबर ।।

वरिष्ठ पत्रकार

मनमोहन सिंह और नवाज शरीफ के बीच मुलाकात एक विदा लेते मेमने और तश्रीफ ला रहे शेर की भेंट नहीं थी. यह दो असहाय लोगों का मिलन था. मनमोहन सिंह को अपनी साख को कमजोर करने में वर्षो का वक्त लगा.

नवाज शरीफ ने कुछ महीनों में ही अपनी चमक गंवा दी है. दोनों कमजोर सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर दिल्ली का यान जमीन पर गिरा है, तो इसलामाबाद का यान उड़ान ही नहीं भर सका है.

यह कुछ हद तक राहत की बात है कि भारत और पाकिस्तान के बीच उच्च स्तरीय नोकझोंक इस बात के इर्दगिर्द ही सिमटी रही कि नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंकल या आंटी सैम को कहानियां सुनानेवाली गांव की बूढ़ी औरत कहा कि नहीं! चूंकि मैं वहां मौजूद नहीं था, इसलिए मैं इस कहानी की सत्यता के बारे में कुछ नहीं कह सकता. लेकिन, मैं यह सोच रहा हूं कि गांव की वह बूढ़ी औरत इस तुलना पर क्या कहती? क्या वह बुरा मानती?

डॉ सिंह पर तो कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखा. ही इस तुलना से, ही इस बात के संकेत से कि वे सोनिया गांधी की सहमति से लिये गये फैसले पर राहुल के औचक हमले के बाद बेचारा बन गये हैं. इसमें मौजूदा राजनीतिक माहौल की भी एक झलक दिखती है. कांग्रेस के युवराज को भी लगता है कि कांग्रेस सरकार की आलोचना करके ही वे मतदाताओं से कुछ अंक बटोर सकते हैं!

तात्कालिक चिंताओं के बीच हम एक दूसरे संदर्भ नजरअंदाज कर सकते हैं. मनमोहन सिंह और नवाज शरीफ के बीच मुलाकात एक विदा लेते मेमने और तश्रीफ ला रहे शेर की भेंट नहीं थी. यह दो असहाय लोगों का मिलन था. मनमोहन सिंह को अपनी साख कमजोर करने में वर्षो का वक्त लगा.

नवाज शरीफ ने कुछ महीनों में ही अपनी चमक गंवा दी है. दोनों कमजोर सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर दिल्ली का यान जमीन पर गिरा है, तो इसलामाबाद का यान उड़ान ही नहीं भर सका है. दोनों ने विदेश में मुलाकात की, क्योंकि वे देश में नहीं मिल सकते थे.

लेकिन, अगर मुलाकात का मकसद सिर्फ रवायतों को दोहराना, दिखावटी कठोर भाषा में बात करना ही था, तो फिर इसकी जरूरत क्या थी! मनमोहन सिंह ने कभी ऐसा सवाल नहीं पूछा, जिसे नवाज शरीफ कभी सुनना नहीं चाहते, या जिसका वे जवाब नहीं दे पाते. सवाल यह कि नियंत्रण रेखा पर घुसपैठ हिंसा की घटनाओं में वृद्धि की वजह क्या है?

संघर्ष एक बेहद जटिल दुविधा है. इसका कोई आसान उपचार नहीं है. लेकिन, भारत और पाकिस्तान एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गये हैं, जहां रोग की जांच की सामान्य कोशिशों के लिए भी जगह नहीं बची. आधिकारिक तौर पर पाकिस्तान, कश्मीर के लिए लड़ी जा रही जंग की कोई जिम्मेवारी नहीं लेता और इसका ठीकरा नॉनस्टेट एक्टर्स (आतंकवादियों) के माथे पर फोड़ता है. ऐसा करके पाकिस्तान यह बताना चाहता है कि उसने कश्मीर की जंग में युद्ध के विकल्प को त्याग दिया है.

भारत के प्रधानंत्री ने वह सवाल कभी नहीं पूछा, जो भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बेल्जियम और तुर्की की अपनी यात्रा के दौरान पूछा : ये नॉनस्टेट एक्टर्स आते कहां से हैं? वे आसमान से तो नहीं टपकते! वे पाकिस्तान की जमीन पर फलतेफूलते हैं और पाकिस्तानी सेना की मदद से नियंत्रण रेखा को पार करते हैं. उन्हें पाकिस्तानी सेना द्वारा कभी नहीं रोका जाता.

क्या यह मदद शरीफ सरकार की रजामंदी से दी जा रही है, या यह पाकिस्तानी सेना का स्वतंत्र एजेंडा है? यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नवाज शरीफ लाचार हैं. वे अपनी सेना से झगड़ा नहीं मोल ले सकते. वे उन स्वार्थी तत्वों को अपना दुश्मन नहीं बनाना चाहते, जिन्हें आज भी लगता है कि भारत को धीरेधीरे खंडित किया जा सकता है. नवाज शरीफ ने भले अपने शब्दों में ऐसा कहा हो, लेकिन उनकी निष्क्रियता इस बात का सबूत है कि हाफिज सईद के मामले में उन्होंने न्यूनतम हस्तक्षेप करने की नीति अपना रखी है.

पाकिस्तान में हो रहे भयावह रक्तपात, फिर चाहे वह पेशावर में चर्च पर हमला हो, या पेशावर की ही सड़कों पर कार बम से मुसलिमों पर किया गया हमला, या फिर देशभर में शियाओं का कत्लेआम, के मद्देनजर एक हद तक यह माना जा सकता है कि सीमापार आतंकवाद फिलहाल उनकी प्राथमिकताओं में काफी पीछे हो. अगर हाफिज सईद भारत के लिए खतरा है, तो पाकिस्तान तालिबान पाकिस्तानी राज्य को ही निगल लेने पर आमादा है.

अगर ऐसा सचमुच है, तो सबसे अच्छा रास्ता भारतपाकिस्तान वार्ता को तब तक स्थगित रखना है, जब तक दिल्ली और इसलामाबाद ठोस बातचीत करने की स्थिति में जायें. न्यूयॉर्क में भोजन के तौर पर पेश किया गया गप्प जितनी गंभीरता के साथ परोसा गया, वह हास्यास्पद लगता है. शरीफ और मनमोहन अपनी जनता को मूर्ख नहीं बना रहे हैं. लोग उनकी सोच से ज्यादा समझदार हैं. वे दरअसल खुद को मूर्ख बना रहे हैं.

भारत की जनता प्रणब मुखर्जी को लेकर नोस्टाल्जिक है. सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्होंने जनता के मिजाज को भांप कर उसे वाणी दी, बल्कि इसलिए क्योंकि प्रणब उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर मिल सकते थे, लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें यह पद नहीं लेने दिया.

कांग्रेस इसे कभी स्वीकार नहीं करेगी, लेकिन निजी तौर पर इसके नेता प्रणब मुखर्जी के बगैर लोकसभा चुनाव में दाखिल होने के खतरे को स्वीकार कर रहे हैं. डॉ सिंह 2014 के बाद प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे. प्रणब मुखर्जी 2017 तक राष्ट्रपति रहेंगे. शायद शरीफ और मुखर्जी के बीच बातचीत की तारीख तय करने के लिए काफी वक्त है.

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