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यह राहुल गांधी का पहला कदम है

।।अरविंद मोहन।।(वरिष्ठ पत्रकार)अंत भला तो सब भला. संसद और विधानसभाओं में बैठे जनप्रतिनिधियों को दो साल की सजा होने पर चुनाव लड़ने से रोकने और उनकी सदस्यता चले जाने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद संविधान संशोधन के जरिये इन लोगों को यह विशेषाधिकार देने संबंधी अध्यादेश और विधेयक को अगर सरकार ने खुद […]

।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अंत भला तो सब भला. संसद और विधानसभाओं में बैठे जनप्रतिनिधियों को दो साल की सजा होने पर चुनाव लड़ने से रोकने और उनकी सदस्यता चले जाने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद संविधान संशोधन के जरिये इन लोगों को यह विशेषाधिकार देने संबंधी अध्यादेश और विधेयक को अगर सरकार ने खुद से रोक देने का फैसला किया है, तो यह स्वागतयोग्य फैसला है. सामान्य ढंग से हमारी सरकार और संसद ऐसे मामलों में इतना साफ और अच्छा फैसला नहीं करती है. इस बार भी सरकार और संसद में मौजूद श्रीमानों/श्रीमतियों की ऐसी इच्छा नहीं थी.

इसलिए यह काम हो जाने का श्रेय राहुल गांधी या भाजपा में से जिसे भी देना हो, उसे देने में कोताही नहीं करनी चाहिए. आखिर भाजपा भी जनप्रतिनिधियों को मिले इस विशेषाधिकार का लाभ लेती रही है और मॉनसून सत्र में लोकसभा में पेश बिल का समर्थन करने तक इसके पक्ष में थी. वह सर्वदलीय बैठक में भी इसे समर्थन देती रही, पर जैसे ही उसे लगा कि राज्यसभा से बिल पास नहीं होने के बाद आये अध्यादेश से लालू प्रसाद और रसीद मसूद के बचने का रास्ता खुल जायेगा, तब उसका संसद प्रेम और अध्यादेश विरोधी भाव जग गया. शायद उसे नहीं मालूम था कि नाटक रचने और करने में कांग्रेसियों का भी जवाब नहीं है.

सो अच्छा खासा नाटक हुआ. अजय माकन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी अचानक आये और तीन मिनट में दो बार इस अध्यादेश को ‘नानसेंस’ अर्थात् बकवास और फाड़ कर फेंक देने लायक बताया. उत्तर प्रदेश चुनाव के समय समाजवादी पार्टी का घोषणापत्र फाड़ने की तरह यहां उन्होंने कोई कागज तो नहीं फाड़ा, लेकिन अपनी भाषा और व्यवहार से सरकार, कैबिनेट और उसके मुखिया की मर्यादा को तार-तार जरूर कर दिया. विदेश यात्रा पर गये प्रधानमंत्री ने इस बार ज्यादा संयत आचरण किया और इस्तीफा नहीं देने से लेकर सबसे बातचीत करने की बात लौटते विमान में ही कह दिया.

दिल्ली आने के अगले दिन वे पहले राजघाट पर सोनिया से दूर रहे, फिर राहुल से मिले, फिर कांग्रेस कोर ग्रुप की आधी-अधूरी बैठक की, राष्ट्रपति से मिले, जिन्होंने अध्यादेश को लेकर कुछ सवाल उठाये थे और अंत में कैबिनेट की बैठक कर बिल और अध्यादेश वापस करने का फैसला करके फिर विदेश निकल गये. उन्होंने राहुल की ही बात चलने दी, पर अजय माकन और राजीव शुक्ल की तरह एकदम से न यू-टर्न लिया, न नाराज होकर मुंह फुलाया. उन्होंने इस प्रकरण में पहले राहुल और फिर सोनिया गांधी की तरफ से राजघाट पर मिले संदेश (सोनिया ने मांड्या, कर्नाटक में एक दिन पहले ही मनमोहन का बचाव किया था) को लेने और समझने में भी कोई भूल नहीं की कि अब उनकी पारी का अंत आनेवाला है.

राहुल बनाम मनमोहन या कैबिनेट बनाम पार्टी संगठन के इस विवाद में कौन जीता कौन हारा, यह महत्वपूर्ण नहीं है. अगर ऐसी लड़ाई हो तो कांग्रेस में क्या होगा, यह बात तो पहले से लगभग तय है. सवाल यह है कि जो हुआ सो क्यों हुआ, इसी रूप में क्यों हुआ और इसी समय क्यों हुआ? फिर यह विचारना भी जरूरी होगा कि किसे और क्या लाभ हुआ? सबसे पहली चीज तो नरेंद्र मोदी के शोर के बीच राहुल का अचानक उभर कर आना और चर्चा में मोदी को भी पीछे कर देना है. यह भी कहना होगा कि यह एक ऐसा मुद्दा था, जिसमें स्थापित दलों की राय चाहे जो हो, आमलोगों, मीडिया, न्यायपालिका की राय एकदम अलग है और वह धीरे-धीरे मजबूत होकर ऐसी हो गयी है कि भाजपा नेता हों या राहुल गांधी, उन्हें इसका लोभ होने लगा है.

इसलिए संभव है कि चर्चा और इमेज सुधरने के साथ राहुल को वोटों का भी लाभ मिल जाये. इधर यह आशंका भी होने लगी थी कि कहीं राहुल सोनिया की राह पर चलना न शुरू कर दें. सो इस एक प्रकरण से उनकी सक्रियता, मनमोहन सिंह को संदेश और सोनिया वाली राह की जगह जमीनी राजनीति में उतरने के साफ संकेत मिल गये हैं. हालांकि इससे राहुल बनाम मोदी के सीधे और वन-टू-वन मुकाबले की उम्मीद न कर लीजिये. उस दावं में फंस कर राहुल मोदी से कितना लड़ पाएंगे, यह यह कहना मुश्किल है, लेकिन वे एकदम गुम होने का जोखिम भी नहीं उठानेवाले हैं.

जहां तक सरकार के इकबाल और मर्यादा का सवाल है, तो उसमें भी राष्ट्रपति के सवालों और कई तरह से आती अध्यादेश विरोधी आवाज को सुन कर इसे वापस लेने से उसकी प्रतिष्ठा का ऐसा कोई नाश नहीं हुआ है. सरकार हो या कोई और, जब भी भूल सुधार कर ले तभी उसका स्वागत होना चाहिए. अगर अभी सरकार झुकी लगती है और थोड़े असामान्य और अमर्यादित ढंग से भी इस मामले में दखल देकर राहुल गांधी अगर जीत गये लगते हैं, तो उसकी एक बड़ी वजह यह मुद्दा और उस पर लिया गया उनका स्टैंड भी है. सरकार अगर अब भी अध्यादेश और बिल को पास कराने की जिद दिखाती तो अपनी ज्यादा किरकिरी कराती. अध्यादेश वापस लेना उतना शर्मनाक नहीं है, जितना अध्यादेश को लागू कराना होता. और अगर सभी दलों को लगता है कि निचली अदालत से किसी भी तरह का फैसला आ सकता है और वहां किसी भी किस्म का मुकदमा दायर कराया जा सकता है, तो यह बात सिर्फ जनप्रतिनिधियों भर के लिए लागू नहीं होती. यह तो हर आदमी के साथ हो सकता है या अब भी हो रहा है. फिर तो इसका उपाय थाने और सेशन कोर्ट के कामकाज को सुधारना है और यदि यह सुधार नहीं हो सकता तो सजा के लागू होने का स्तर ही हाइकोर्ट कर दिया जाये या फिर राहत देनी ही हो तो सिर्फ नेताओं की जगह सभी लोगों को दे दी जाये.

इस प्रकरण से राहुल और कांग्रेस को कुछ फायदा होगा? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है, लेकिन यह कहना आसान है कि राहुल की यह दखलंदाजी नहीं होती तो कांग्रेस की छवि कुछ और बदनुमा होती. जहां तक दखल के तरीके और भाषा का सवाल है, जिन लोगों ने राहुल के लिए यह ‘नाटक’ लिखा और इतनी खूबसूरती से मंचित किया उनको भाषा और तरीके का कोई ज्ञान न रहा होगा, यह मानना गलत होगा. और यदि सोच-समझ कर इस भाषा व शैली का प्रयोग किया गया है, तो यह और भी शर्मनाक है. पर जहां तक भाजपा के अचानक प्रधानमंत्री का हितैषी बन जाने का मामला है, तो यह एक मुद्दा छिनने के साथ राहुल का पताका फहराने से हुई परेशानी के चलते भी है. कहां तो पार्टी रसीद मसूद और लालू प्रसाद का नाम लेकर कांग्रेस को घेरने की तैयारी कर रही थी, कहां वह खुद घिर गयी और अब उसे अपने कई बड़े नेताओं के खिलाफ चल रहे मुकदमों में उनके फंस जाने का डर भी सताने लगा है.

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