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योग को योग ही रहने दें

पता नहीं कि अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के हल्ले के बीच शीर्षासन करते नेहरू की वह तसवीर किसी अखबार में छपी या नहीं, लेकिन ‘फेसबुक’ के चतुर-सुजानों ने उस तसवीर की जरूर खबर ली. एक तसवीर के हजार मायने निकल सकते हैं. तो, योग दिवस के अवसर पर मची अनेकवर्णा रार के बीच नेहरू की उस […]

पता नहीं कि अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के हल्ले के बीच शीर्षासन करते नेहरू की वह तसवीर किसी अखबार में छपी या नहीं, लेकिन ‘फेसबुक’ के चतुर-सुजानों ने उस तसवीर की जरूर खबर ली. एक तसवीर के हजार मायने निकल सकते हैं. तो, योग दिवस के अवसर पर मची अनेकवर्णा रार के बीच नेहरू की उस शीर्षासनी तसवीर के क्या अर्थ निकालें, क्योंकि अर्थ का ही झगड़ा है कि घोषित अनेक अर्थो के बीच योग के सही अर्थ क्या हो सकते हैं?

किसी को लगा योग भारत की सर्वधर्म समभाव वाली छवि के अनुकूल है और उसने नमाज के भीतर भी कई आसन ढूंढ़ निकाले. किसी ने योग जगाने की कोशिश में प्राचीन भारत के गौरव का शंखनाद सुना, तो किसी को लगा यह आगे की भूल पीछे की सुध लेने की पिच्छलपैरी गति है, जो सिर्फ भूतों की हुआ करती है. किसी को लगा योग का संयुक्त राष्ट्रसंघ के कैलेंडर में चढ़ना भारत के विश्वगुरु होने की घोषणा है, तो किसी ने याद दिलाया कि यह 19 करोड़ भुखमरी के शिकार भारतीयों के प्रति अपनी जिम्मेवारी से मुंह फेरे रखने का बहाना है. किसी को इसमें राजपथ को योगपथ में बदलने की भव्य झलक दिखी, तो किसी को लगा यह भारत के सैन्यकरण की अघोषित कोशिश है. इन अर्थो के इस घटाटोप के बीच फेसबुक के चतुर-सुजान नेहरू की शार्षासनी तसवीर के जरिये क्या बताने की कोशिश कर रहे थे?

क्या उनकी कोशिश यह बताने की थी कि योग की परंपरा-प्रदत्त धारणा को एक ‘भारत-व्याकुल’ सरकार ने उल्टा यानी सर के बल खड़ा कर दिया है? या, यह जताने की कोशिश की जा रही थी कि भारत को ‘साइंटिफिक टेंपरामेंट’ से ओत-प्रोत करके उसमें आधुनिक भावबोध जगाने के हामी नेहरू उपयोगितावादी दर्शन के अनुकूल योग को एक उपयोगी औजार मान कर बरतने के हामी थे, खुद भी योगासन साधा करते थे. सो भारत के निर्माता कहलानेवाले नेहरू से लेकर भारत के नव-निर्माता कहलाने के आकांक्षी नरेंद्र मोदी तक योग को लेकर देश के शासक-वर्ग की धारणा में कोई विशेष अंतर नहीं आया है. हालांकि, खोजी कहेंगे कि नेहरू का शीर्षासन उनके आवास-परिसर के आहाते में और व्यक्तित्व के अकेलेपन में घटित हुआ, जबकि मोदी जी का योग दिवस ऐन राजपथ के सार्वजनिक उजाले में और यह एक अंतर योग के व्यवहार को लेकर बहुत बड़े बदलाव की सूचना है.

नेहरू योग के प्रेमी थे या नहीं यह कयास का विषय हो सकता है, लेकिन वे योग के अभ्यासी थे. ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में नेहरू ने स्वीकार किया है कि ‘योग अभ्यास के बहुत सारे आसन हैं और इनमें से कुछ सरल आसनों का अभ्यास करते मुङो कई साल हो गये. देह और मन के विपरीत पड़नेवाले परिवेश में इन आसनों से मुङो बहुत फायदा हुआ है.’ लेकिन, नेहरू के भीतर साफगोई का साहस भी था, तभी उन्होंने योग को देह और दिमाग को दुरुस्त रखने की उपयोगी तरकीब भर ना मान कर लिखा कि ‘योग का मेरा अभ्यास कुछ शारीरिक आसनों तक ही सीमित है. मैं योगाभ्यास की इस शुरुआती शारीरिक अवस्था के आगे नहीं गया और मेरा मन हमेशा लीक छोड़ कर भटकते रहता है.’

नेहरू योगाभ्यास से अपने मन को क्यों नहीं साध पाये? इसका एक उत्तर ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में मिलता है. नेहरू लिखते हैं, ‘मान्यता है कि योगाभ्यास के परवर्ती चरण एक तरह के अंतबरेध या आनंद की ‘भावदशा’ तक ले जाते हैं, कुछ वैसी ही भावदशा, जिसके बारे में भावोन्मत्त संतों ने उपदेश किया है. ऐसा लिखने के तुंरत बाद नेहरू शंका जाहिर करते हैं कि ऐसी उच्चत्तर मनोदशा ज्ञान के नये मार्ग खोलती है या फिर यह एक आत्मसम्मोहन है, मैं नहीं जानता.’ वे उहापोह में हैं कि धारणा, ध्यान, समाधि आदि योग के उच्चत्तर चरणों को आत्मसम्मोहन कहा जाये या नहीं. परंपरा-प्रदत्त ज्ञान की पहचान और इससे परे शंका के बूते सचेत अलगाव, ताकि नया भारत गढ़ा जा सके, नेहरू को परंपरा का खोजी बनाता है, बंधुआ नहीं. इसी अर्थ में वे आधुनिक थे, अतीत के हर टुकड़े में वर्तमान समस्याओं के समाधान का अचूक नुस्खा ढूंढ़ने वाले उन छद्म परंपरावादियों से अलग, जो पंरपरा का अवगाहन हमेशा किसी प्रयोजन के लिए करते हैं, गोया प्रयोजन नहीं तो परंपरा भी नहीं.

दोष योग में नहीं, योग के मौजूदा अर्थ-संकोच में है. योग: कर्मसु कौशलम् का अर्थ जब यह निकालेंगे कि अपने पेशेवर कर्म में कुशल बनो, ताकि देश की जीडीपी में इजाफा हो, तो यह अर्थदोष होगा. योग: चितवृति: निरोध: का अर्थ यह निकालेंगे कि हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश जैसी चित्त की दशा से उबरो और अपने राष्ट्र को सब राष्ट्रों से ऊपर प्रतिष्ठित करो, तो यह अर्थदोष होगा. योग को राष्ट्रसेवा के अपने प्रोजेक्ट के भीतर फिट करेंगे, तो यही कहा जायेगा कि आपको न अपनी परंपरा की पहचान है और ना ही उससे प्रेम!

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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