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सपना ही रह जायेगा ग्राम स्वराज?

झारखंड में 32 साल बाद पंचायत चुनाव हुए लेकिन पंचायत को न पूर्ण अधिकार मिला और न पंचायतकर्मियों को सम्मानजनक मासिक वेतन. अगर अधिकार की बात करें तो न के बराबर जो भी अधिकार मिला है वह एक ही व्यक्ति में निहित है. आज जनता के वास्तविक दुख-दर्द को जो नजदीक से देख रहे हैं […]

झारखंड में 32 साल बाद पंचायत चुनाव हुए लेकिन पंचायत को न पूर्ण अधिकार मिला और न पंचायतकर्मियों को सम्मानजनक मासिक वेतन. अगर अधिकार की बात करें तो न के बराबर जो भी अधिकार मिला है वह एक ही व्यक्ति में निहित है.
आज जनता के वास्तविक दुख-दर्द को जो नजदीक से देख रहे हैं उन्हें अधिकार ही नहीं कि उनकी समस्याओं का निदान कर सकें. पंचायत का अधिकार ऐसा होना चाहिए कि गांव के विकास की रूपरेखा गांव की जरूरत के हिसाब से गांव में ही बने और उसी के अनुरूप बजट भी तैयार हो, तभी तो गांधी जी के ग्राम स्वराज का सपना पूर्ण होता दिखेगा. लेकिन आज स्वराज के बजाय नेता राज हो गया है.
आज लोगों की भोजन, आवास, पानी, बिजली, सड़क जैसी मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पा रहीं, ऐसे में स्वराज की बात कौन करे! वेतन की बात करें तो पंचायत प्रतिनिधियों का वेतन सैकड़े में ही सिमट जाता है जबकि माननीयों का वेतन लाखों में है.
सरकार के मंत्री, सांसद और विधायक महोदय से जनता यह कहना चाहती है कि वे जनता को बहला-फुसलाकर अपनी कुर्सी तो पक्की कर लेते हैं, जिसके बाद उनकी पांचों उंगलियां घी में हो जाती हैं,
लेकिन जिस जनता ने उम्मीदों के साथ उन्हें वहां पहुंचाया होता है, उन्हें तो वे तब तक के लिए भुला देते हैं जब तक अगले चुनाव न आ जायें. आखिर उन्हें जरूरत भी क्या है वातानुकूलित आवास के मजे छोड़ गांव-देहात की कच्ची सड़कों की धूल फांकने की!
ऐसे में लोकतंत्र की बुनियादी इकाई कहे जानेवाले पंचायत कमजोर नहीं तो और क्या होंगे? शहरों की बढ़िया सड़कों को विकास के नाम पर फिजूल में चमकाया जाता है और गांव को शहर से जोड़नेवाली कई सड़कें अब भी बदहाल हैं. ऐसा कब तक चलेगा?
परितोष कुसेन, नोनीहाट, दुमका

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