।।नंद चतुव्रेदी।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
अंगरेजी के आतंक का प्रभाव और विस्तार की गति समझने के लिए 178 वर्ष पीछे जाना होगा- 2 फरवरी, 1835 तक. मैकॉले ने सबसे पहले भारत की पुरानी शिक्षा पद्धतियों और पुरानी भाषाओं को नये ज्ञान की भाषाएं मानने से इनकार किया और उन्हें लगभग मृत भाषाओं की कोटि में डाल दिया. उन्होंने बड़ी चतुराई से यह प्रमाणित किया कि पूर्व ज्ञान-परंपरा के संबंध में वे किन्हीं पूर्वाग्रहों अथवा दुर्भावनाओं के कारण ऐसा नहीं कह रहे हैं और न वे अकेले ही हैं जो ऐसा कह रहे हैं, बल्कि भारत के ‘बौद्धिकों’ का एक बड़ा समुदाय भी यही कह रहा है कि ‘यूरोप के एक अच्छे पुस्तकालय की एक अलमारी भारतवर्ष और अरब के संपूर्ण देशी साहित्य के बराबर है.’ देखने की बात है कि यह प्रभावशाली ‘बौद्धिक समुदाय’ कौन-सा है जिसका हवाला देकर मैकॉले संपूर्ण भारतीय ज्ञान-परंपरा को यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी में आधी जगह देने को भी राजी नहीं हैं? ये कौन से ‘ज्ञानी लोग’ हैं जो उनके संपर्क में आते हैं और जनता के भी? जाहिर है ये वे ही ‘प्रभु वर्ग’ के लोग हैं जो यूरोपीय सभ्यता के ‘उत्पाद’ हैं और कंपनी बहादुर के हितों के साथ अपने हितों की पतंग उड़ाते हैं.
ध्यान देने योग्य है कि मैकॉले भारतीय ज्ञान-परंपरा की व्यर्थता की चर्चा कैसे समय करते हैं. ऐसे समय, जब देश निरंतर आक्रमणों से विचलित हुआ, अपनी खंडित परंपराओं को फिर से ढूंढ़ने में लगा था. हो सकता है कि हताशा के ऐसे समय में देशवासियों ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न की हो. यह भी हो सकता है ऐसे समय में मैकॉले का यह हस्तक्षेप देश की अस्त-व्यस्त हुई सामाजिक, शैक्षिक व्यवस्था को तरतीब, गति और रोशनी देना लगा हो. रही बात भारत के उस ‘बौद्धिक समूह’ की जो मैकॉले का समर्थन कर रहे थे, तो वे उस गरीब, शोषित वर्ग के थे ही नहीं, जिन्हें अंगरेजी-शिक्षा से पैदा हुई विसंगतियों, विषमता और शोषण की अकथनीय त्रसदी भोगनी पड़ी हो. यह भी गौरतलब है कि अपने समय के इर्द-गिर्द फैली तात्कालिक ज्ञान व शिक्षा की बिखरी गतिविधियों को देख उन सब काल-खंडों के विज्ञान, कला, साहित्य, स्थापत्य को सर्वथा झुठला देते हैं, जिन्हें इतिहास ‘स्वर्णयुग’ कहता है. वास्तव में यह आलोचना और उसके साथ शिक्षा के नवाचार की स्थापना की भाषा भारत के शुभचिंतक अथवा मित्र की नहीं, बल्कि ‘राजपुरुष’ और ‘प्रभु’ की आतंकित करनेवाली भाषा लगती है. यह वैकल्पिक शिक्षा योजना या भारतीय प्रज्ञा के उन्नयन की तलाश करती कोई ज्ञान-विधि नहीं है. यह दरअसल उन ईसाई मिशनरियों जैसी भाषा है जो यह मानते हैं कि वे एशिया महाद्वीप की जनता को उनके देवी-देवताओं और अंध-विश्वासों से मुक्त कराने आये हैं.
इस तरह के अहंकार की मनोग्रंथि से घिरे होने के कारण मैकॉले जल्दी से यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं, जो उनके भाषण ‘मिनिट्स’ में इस प्रकार दर्ज हैं- ‘यूरोप की किसी भी एक अच्छी लाइब्रेरी की आलमारी भारत तथा अरब के संपूर्ण देशज साहित्य के समतुल्य है.’ मैकॉले की यह दर्पोक्ति पश्चिम साम्राज्यवादियों और गोरी दुनिया का जाना-माना मुहावरा है, जो वे तीसरी दुनिया के अधीनस्थ काले लोगों में में हीनता बोध पैदा करने के काम में लेते रहे हैं. जरा ‘मिनिट्स’ की उन टिप्पणियों को भी देख लें, जो ईसाई धर्म का भारत में प्रचार करनेवाले मिशनरियों, पादरियों के वक्तव्यों से मिलती-जुलती हैं. मैकॉले लिखते हैं, ‘यह बार-बार सिद्ध हो चुका है कि इन भाषाओं में कोई विशेष ज्ञान नहीं है. हम जो पढ़ाते हैं, उनसे घोर अंधविश्वास फैलते हैं. हम एक झूठे धर्म का साथ देते हैं, झूठा इतिहास, झूठ खगोल विज्ञान, झूठा चिकित्सा शास्त्र पढ़ाते हैं.’ भाषण में आगे चल कर मैकॉले यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि अंगरेजी सीखना-पढ़ाना सहज और ज्ञान-वाहक है. वे बताते हैं कि ‘हम भली-भांति जानते हैं कि हर देश के विद्वान हमारी भाषा सफलतापूर्वक सीखते हैं और हमारे कठिन से कठिन लेखकों को पढ़ते व समझते हैं. हमारे साहित्य को मुहावरेदार भाषा और सौंदर्य का आनंद उठाते हैं.’ मैकॉले, जो एक प्रभावशाली, प्रतिभाशाली राजपुरुष भी बन गये थे, की इस पक्षधरता ने उन भारतीय प्रबुद्धों को शक्ति दी जो पहले ही शिक्षा के ‘देशज, ढुलमुल, लक्ष्यहीन ढांचे’ की निंदा कर रहे थे. इस तरह मैकॉले की साहसिक आलोचना व शिक्षा के वैकल्पिक ‘अंगरेजी मॉडल’ ने अंगरेजी भाषा शिक्षण के लिए उर्वरा भूमि तैयार कर दी.
मैकॉले की शिक्षा-नीति भाषा का दूसरा बिंदु और भी महत्वपूर्ण है जो भाषाई-साम्राज्यवाद फैलाने की केंद्रीय धुरी है. यह इस तथ्य को मजबूत करता है कि भाषा जो संस्कृति का सहज हिस्सा और निष्कलुष लगती है, कैसे वर्ग का निर्माण करती है और शोषक वर्ग का मददगार प्रचार-साधन बनती है. डॉ राम मनोहर लोहिया ने भारतीय ‘वर्ग-चरित्र’ की बुनावट को लक्षित करते हुए कहा है कि भारत में पूंजी ही नहीं, जाति और भाषा भी ‘वर्ग’ का निर्माण करती है और उत्पादन का साधन बनती है. भाषा का वर्चस्व ‘समता’ के दावों को भोथरा और निष्प्रभ करता है. मैकॉले की शिक्षा नीति का दूसरा आग्रह इस प्रकार है – ‘इस समय हमें यथासंभव एक ऐसा ‘वर्ग’ (क्लास) तैयार करना चाहिए, जो हमारे मंतव्यों, हमारे साम्राज्य को उठानेवाला भाष्यकार हो, एक ऐसा ‘वर्ग’ जो सिर्फ ‘रक्त और रंग’ से हिंदुस्तानी हो, विचारों व निष्ठाओं से अंगरेज.’
मैकॉले का यह वक्तव्य दुस्साहसिकतापूर्ण था और हर तरह के ‘भाषाई साम्राज्यवाद’ फैलाने के लिए उत्साहित करनेवाला तो था ही. उसने प्रबुद्ध वर्ग के मन में हीनता की ऐसी ग्रंथि और नौकरी की ऐसी लालसा की जमीन तैयार कर दी, जिससे आज तक देशवासी मुक्त नहीं हो सके. मैकॉले का वक्तव्य अपने समय की चौपट हुई सामाजिक, शैक्षिक व्यवस्था का कोई ‘भारतीय विकल्प’ नहीं ढूंढ़ता, बल्कि एक ऐसा वर्ग बनाने की हिमायत करता है जो आचार-विचार, विवेक-व्यवहार, शील-संस्कृति से अंगरेज हो जाये. मैकॉले की इस स्थापना को एक कल्पनाशील समूह ने लपक लिया और धीरे-धीरे अंगरेजी शिक्षा के प्रचार को अपना ध्येय बना लिया. यह एक ऐसी सुव्यवस्थित शिक्षा-व्यवस्था नजर आने लगी जो नौकरी दिलानेवाले भविष्य के साथ जुड़ी थी और उस शासन-तंत्र के साथ भी जिसका सूर्य चौबीस घंटे चमकता था.
(अगला भाग सोमवार के अंक में)