Advertisement
सलमान का दर्द और गरीब का गुनाह
तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा अब समय आ गया है और यह जरूरी भी है कि कलम के सामंती और सर्वजन वाले स्वरूप के बारे में चर्चा हो. यदि धन कलम को प्रभावित करेगा, तो लेखन ही नहीं, बल्कि जन संवेदना के सरोकारों से जुड़ा मानवीय धर्म आहत होगा. राजनीति और मीडिया में धन और […]
तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
अब समय आ गया है और यह जरूरी भी है कि कलम के सामंती और सर्वजन वाले स्वरूप के बारे में चर्चा हो. यदि धन कलम को प्रभावित करेगा, तो लेखन ही नहीं, बल्कि जन संवेदना के सरोकारों से जुड़ा मानवीय धर्म आहत होगा.
राजनीति और मीडिया में धन और बल का प्रभाव कितना अधिक हो गया है, इसका एक पीड़ादायक उदाहरण है अभिनेता सलमान खान को सजा मिलने के बाद चारों ओर प्रतिक्रियाओं के बादलों का छा जाना. उन्हें थोड़ी ही देर में जमानत मिल जाना और फिल्मी कबीले के लोगों द्वारा रो-रोकर सलमान खान से सहानुभूति के बयान देना इस बात की गवाही है कि गुनाह और सजा आपके पैसे, प्रभाव और परिस्थिति पर नियंत्रण करने की क्षमता से आंके जाते हैं.
इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू मीडिया का है. अकसर मीडिया में गरीब, दुखी, दलित के बारे में दर्द की नदियां बहाते लेखक, पत्रकार दिखते हैं, लेकिन सलमान खान को सजा मिलने के मामले में इसी मीडिया ने संवेदनहीनता एवं सस्तापन दिखाते हुए इसे मानो राष्ट्रीय शोक का विषय बना दिया. एक अमीर व्यक्ति को उसके अपराध के कारण सजा दी गयी.
सलमान की गाड़ी से एक गरीब मारा गया और चार अन्य घायल हुए. सलमान खान की सुरक्षा में तैनात एक पुलिसकर्मी ने बयान दिया कि हादसे के दौरान स्वयं सलमान खान ही गाड़ी चला रहे थे. उसकी मृत्यु हो गयी. इसकी जांच भी नहीं हुई. सब बयान और सबूत अदालत के सामने पेश हुए. 2002 से मामला चलता रहा. और इस बीच बहुत कुछ बदल गया.
बयान बदल गये. यह भी बदल गया कि गाड़ी सलमान खान नहीं, बल्कि कोई और ड्राइवर चला रहा था. सलमान के वफादार अंगरक्षक की भी शोकांतिका हुई. लेकिन, यह सब सिर्फ इस कारण से धूमिल और नजरअंदाज किये जाने योग्य मान लिया गया, क्योंकि सलमान खान लोकप्रिय फिल्म अभिनेता हैं, वे बहुत से बड़े प्रभावी, नामी-गिरामी लोगों के दोस्त हैं, उनकी एक फिल्मी सितारे की छवि है, इसलिए उनके प्रति सहानुभूति होनी ही चाहिए.
वे गरीब लोग, जो मरे, घायल हुए, सिर्फ इस लायक हैं कि उनको कुछ पैसे दे दिये जायें, ताकि वे अपनी जुबान बंद रखें या परेशान न करें. मीडिया भी और राजनेता एवं फिल्मी कलाकार भी या तो इस मामले में चुप्पी ओढ़े रहते हैं, जिसका अर्थ भी सलमान का समर्थन करना ही होता है अथवा खुलेआम सलमान खान से सहानुभूति व्यक्त करते हैं.आमतौर पर यही चलन है.
इसीलिए किसी को आश्चर्य भी नहीं हुआ. राजा, महाराजा, मंत्री, धनवान, कुछ भी करके, कैसा भी रास्ता निकाल लेते हैं. पिछले वर्ष लोकसभा में सदन की माननीय अध्यक्षा की उपस्थिति में लाल मिर्ची का पाउडर छिड़का गया, जिससे सदन में अफरातफरी मच गयी, उसे स्थगित करना पड़ा. इसका क्या नतीजा निकला? कुछ भी नहीं. क्योंकि जिस माननीय सांसद ने यह सब किया, उनके बारे में बताया गया कि वे दस हजार करोड़ रुपये वाली कंपनी चलाते हैं.
एक बस कंडक्टर को बीस वर्ष के मुकदमे के बाद शायद सोलह रुपये की पर्ची गलत काटने के आरोप में सजा दी गयी, लेकिन अमीरों को कानून भी कुछ विशेष निगाह से देखता है. सुश्री जयललिता कुछ समय जरूर कर्नाटक जेल में रहीं और मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा, लेकिन यह एक संक्षिप्त और लघु अपवाद ही कहा जायेगा.
मीडिया शहरी अमीर घरानों तथा दावतनामों की विलासिता में उलझी दिखती है. कभी किसी किसान का साक्षात्कार किसी अखबार के पहले पóो पर छपा देखा आपने? उस किसान की पत्नी या बेटी, जो किसानी की वजह से जिंदगी में तरक्की नहीं कर पाये हैं और खेती छोड़ कर शहर में छोटा-मोटा व्यवसाय करने की सोचते हैं, के मन की पीड़ा किसी चैनल पर चर्चा या बहस का मुद्दा बनते देखी? प्राय: हर शहर में पीपल या बरगद की छांह तले एक मोची पांच रुपये, दस रुपये जैसी कीमत पर जूते-चप्पल ठीक करता मिल जाता है.
उसके बच्चे कहां पढ़ते हैं, वे बड़े होकर क्या बनना चाहेंगे, और उनकी अपने पिता के प्रति क्या दृष्टि है, ऐसा शहर की चर्चा वाले पन्नों पर कभी छपते देखा है आपने? अब तो किसी लेखक की पहली कृति, कवि की कविता, संगीतज्ञ की नयी राग और वैज्ञानिक की नयी खोज राजनेताओं की जगह पहले पन्नों की पहली खबर बनना स्वप्न ही लगता है. हां, शहर के अमीर लोगों की शादियां, दावतें, फूहड़ सांस्कृतिक जलवे और नेताओं के भाषण जरूर प्रमुखता पाते हैं.
सोचना होगा कि देश की अस्सी प्रतिशत आबादी को बीस प्रतिशत से भी कम लोगों की जिंदगी और दावतों के बारे में परोस कर हम क्या संदेश दे रहे हैं? राजधानी और महानगरों के संस्करण अपने ही क्षेत्र के गांवों और नगरों की जिंदगी तक को छपने योग्य नहीं मानते, जब तक कि वहां कोई घृणित अपराध न घटित हो जाये.
पत्रकारिता का अर्थ कभी लहरों के विरुद्ध लड़ना और बहाव के विरुद्ध तैरना हुआ करता था, अब तो सूखी नदी में तैरने के माहिर मीडिया विशेषज्ञ आ गये हैं. सामंती और राजसी लेखक राजाओं के समय हुआ करता था. आजादी की लड़ाई और बाद के वर्षो में भारतीय पत्रकारिता ने विश्वव्यापी यश और कीर्ति अर्जित की. विशेषकर आपातकाल के दौरान अधिकतर समाचार पत्रों और पत्रकारों का व्यवहार संघर्षशील और धन के प्रभाव से मुक्त रहा.
लेकिन बाजारवाद और वैश्विक पूंजी के चक्र ने मीडिया को भी बाजार का एक हिस्सा बना दिया है, जिसमें गरीब और दलित की आवाज ग्लैमर और वैभव की चमक तथा शोर में दबती दिखती है. साधारण आदमी का सामान्य दुख-दर्द और आरोह-अवरोह इस कलम के विषय नहीं बनते, तो बड़े प्रसार, विराट विज्ञापन तथा बहुव्यवसायी परिदृश्य में सिर्फ एक नट बन गयी है.
एक समय था, जब तथाकथित छद्म सेक्यूलरवाद और केसरिया विचार में द्वंद्व था, तब बहस वैचारिक स्तर को ऊंचा उठा गयी. इसे अयोध्या आंदोलन का भी एक परिणाम माना जाता है.
राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता, सांप्रदायिकता, मत आधारित पूर्वाग्रह एवं घृणा जैसे विषयों पर इस बहाने खूब चर्चा हुई. अब आवश्यक है कि कलम के सामंती और सर्वजनवाले स्वरूप के बारे में चर्चा हो. यदि धन कलम को प्रभावित करेगा, तो लेखन ही नहीं, बल्कि जन संवेदना के सरोकारों से जुड़ा मानवीय धर्म भी आहत होगा.
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement