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उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
संघ परिवार ने आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी खत्म करने के अभियानों का कब-कब समर्थन किया? क्या उसने मंदिर-मसजिद, लव जिहाद, घर-वापसी के अलावा कभी समता-प्रेरित अभियानों को आगे बढ़ाया?
समाज और इतिहास में मिथक गढ़े जाते हैं. इतिहास को लेकर बहुत सारी कथाएं भी चलती रहती हैं, पर वे हमेशा यथार्थ नहीं होतीं. लेकिन अपने देश में एक ‘परिवार’ ऐसा है, जो तरह-तरह के धार्मिक मिथकों, यहां तक कि अटकलों को भी इतिहास के साक्ष्य के रूप पेश करने की हास्यास्पद कोशिश करता है. उसकी मानें तो इंजन-विमान, मिसाइल से लेकर अत्याधुनिक सर्जरी के आविष्कार पश्चिमी देशों में नहीं, अपने ही यहां हुए.
यह ‘परिवार’ इन दिनों आधुनिक इतिहास के घटनाक्रमों और उनसे जुड़े प्रमुख पात्रों को लेकर अपनी पसंद के मिथक और गल्प गढ़ रहा है. सबसे तकलीफदेह बात है कि मीडिया का एक हिस्सा इस अभियान में उसका मोहरा बनता नजर आ रहा है. नेहरू-सुभाष विवाद और डॉ आंबेडकर के राजनीतिक चिंतन को लेकर जिस तरह का ‘भगवा-प्रलाप’ सामने आया है, उसे विमर्श के दायरे में रखना उचित नहीं होगा. यह एक तरह का प्रपंची-अभियान है, जिसका मकसद सिर्फ कुछ निहित राजनीतिक-स्वार्थो की पूर्ति करना है.
क्या संघ परिवार के संगठन जान-बूझ कर स्वाधीनता आंदोलन के कुछ महान नायकों को लेकर एक खास तरह का विवाद पैदा करते हैं, ताकि उन्हें सियासी फायदा मिले? पहले सरदार पटेल को नेहरू के खिलाफ खड़ा किया गया, अब सुभाष चंद्र बोस और डॉ भीम राव आंबेडकर को खड़ा किया जा रहा है.
इन दोनों को अपने झंडे में समेटने की कोशिश भी हो रही है. आजादी की लड़ाई के दौरान और फिर आजाद भारत के शुरुआती दिनों के कई मुद्दों को लेकर सरदार पटेल और डॉ आंबेडकर के पंडित नेहरू से मतभेद रहे. पटेल और आंबेडकर के भी कई सारे मुद्दों पर मतभेद थे. लेकिन, अनेक मुद्दों पर इनकी सोच में समानता भी थी. तभी तो इन सबने एक साथ काम किया. जहां तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का सवाल है, आजादी की लड़ाई के दौरान उनके नेहरू और यहां तक कि महात्मा गांधी से भी कई तरह के मतभेद उजागर हुए.
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्षीय चुनाव में गांधी के विरोध के बावजूद सुभाष बोस निर्वाचित हुए थे. बाद में सुभाष बोस अलग हुए और निर्वासन में उन्होंने आइएनए के बैनर तले जीवन-र्पयत देश की आजादी के लिए अपना अभियान जारी रखा. इनमें एक भी ऐसा महानायक नहीं, जिसका कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दूर-दूर का कोई रिश्ता रहा हो, जबकि इन नेताओं के जीवित रहते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने अस्तित्व में आ चुका था.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हो चुकी थी, लेकिन आजादी की लड़ाई में उसकी कोई उल्लेखनीय भूमिका इतिहास में नहीं मिलती. शायद इसीलिए संघ परिवार इन दिनों आजादी की लड़ाई के नायकों-महानायकों में अपनी पसंद का पात्र तलाशता नजर आ रहा है, जिन्हें वह नेहरू के खिलाफ खड़ा कर सके.
गांधी पर एक ‘हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी’ ने कायराना ढंग से गोलियां चलायी थीं. इसलिए संघ परिवार गांधी पर सीधा हमला बोलने का जोखिम नहीं ले सकता. लेकिन, नेहरू पर हमलावर होना उसे आसान लग रहा है, क्योंकि नेहरू की कामयाबी के साथ कुछ नाकामयाबियां भी हमारे सामने हैं. आज ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान के लिए नेहरू पर हमला बोलना और उन्हें खलनायक बनाने का अभियान छेड़ना उसे जरूरी लग रहा है.
साथ ही संघ के लोग इतिहास की अपने ढंग से व्याख्या करने में सक्रिय हैं. कभी चुनिंदा सरकारी गोपनीय फाइलों के कुछ अंशों को संदर्भ से काट कर पेश किया जा रहा है, तो कभी कुछ नायकों-नेताओं के परिजनों की आहत भावनाओं को भड़काने की कोशिश की जा रही है.
शहीदे-आजम भगत सिंह, गांधी, पटेल, सुभाष बोस या नेहरू के परिवार में पैदा हुआ हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की तरह ही महान तो नहीं हो सकता! ऐसे में किसी महानायक के परिवार के किसी सदस्य या दूरस्थ परिजन की कोई आहत भावना इतिहास का सच कैसे हो सकती है? उस भावना के अपने आग्रह-पूर्वाग्रह भी तो हो सकते हैं. बोस के संदर्भ में कभी ताइवान की विमान-दुर्घटना पर विवाद, तो कभी स्टालिन के दौर में रूस ले जाकर उनके मारे जाने, कभी 1964 में नेहरू की अंतिम यात्र में उनके शामिल होने, तो कभी फैजाबाद में किन्हीं ‘गुमनामी बाबा’ के रूप में 1985 तक उनके जीवित रहने की कथाएं योजना के तहत प्रचारित की जा रही हैं.
जहां तक हमारे आधुनिक इतिहास के एक अन्य महानायक डॉ आंबेडकर की राजनीतिक विरासत से जुड़ने की संघ परिवार की ताजा कोशिशों का सवाल है, इस पर सिर्फ हंसा जा सकता है.
यह अभियान किसी भद्दे मजाक जैसा है. डॉ आंबेडकर आधुनिक भारत के सबसे प्रतिभाशाली राजनीतिक चिंतकों में एक हैं. भारत के उत्पीड़ित समाजों के लिए वह मुक्ति का नया मार्ग दिखाते हुए हर तरह की गैरबराबरी पर आधारित पारंपरिक भारतीय समाज में गुणात्मक बदलाव न होने से भविष्य के खतरों के प्रति संपूर्ण समाज और देश को आगाह करते हैं. देश को नया संविधान पेश करते हुए उन्होंने कहा था- ‘हम लोग राजनीतिक समानता के दौर में दाखिल हो रहे हैं, लेकिन हमारे समाज में बड़े पैमाने पर आर्थिक व सामाजिक गैरबराबरी मौजूद है.
यह अंतर्विरोधी स्थिति है. जितनी जल्दी हो सके, हमें आर्थिक और सामाजिक बराबरी हासिल करनी होगी. अन्यथा हमारी राजनीतिक आजादी का भी खात्मा हो जायेगा.’ जनतंत्र पर काबिज होते कॉरपोरेट-वर्चस्व के रूप में आज यह खतरा साफ दिखाई दे रहा है.
संघ परिवार ने आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी खत्म करने के अभियानों का कब-कब समर्थन किया? क्या उसने मंदिर-मसजिद, लव-जिहाद, घर-वापसी के अलावा कभी समता-प्रेरित अभियानों को आगे बढ़ाया?
सवालों की शुरुआत कहां से करें- पूना पैक्ट विवाद, हिंदू कोड बिल विवाद, सकारात्मक कार्रवाई के तहत आरक्षण प्रावधान, बैंकों, कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स के खात्मे, भूमि सुधार के चार राज्यों- केरल, कश्मीर, कर्नाटक और बंगाल में हुए बड़े प्रयासों या विनिवेशीकरण-निजीकरण के गरीब-विरोधी अभियानों पर संघ-जनसंघ या संघ-भाजपा का क्या रवैया रहा?
नारों और बयानों की बात छोड़ दें, तो दलित-उत्पीड़ित समाजों के उत्थान और उन्नयन के ठोस एजेंडे पर संघ-जनसंघ-भाजपा का रुख आमतौर पर बेहद नकारात्क रहा है. बिहार में तो इन संगठनों के अनेक नेता खुलेआम रणवीर सेना या ब्रह्मर्षि सेना जैसे सवर्ण भूस्वामी हथियारबंद गिरोहों का संरक्षण-समर्थन करते रहे हैं.
संघी चिंतन जब मनुवादी-हिंदुत्ववाद की वर्णाश्रमी परंपरा में आस्थावान है, तो सामाजिक-आर्थिक बराबरी की आंबेडकर की प्रस्थापना से उसका कहां मेल हो सकता है? हमारे इतिहास के नायकों से जुड़े इन सारे नये भगवा-विवादों की एक ही वजह है- बंगाल, बिहार और यूपी जैसे राज्यों के निकट भविष्य में होनेवाले चुनावों में नये तरह के ध्रुवीकरण की कोशिश. क्या लोग इसे नहीं समझ रहे हैं?

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