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अपशब्दों में लिंगभेद न किया जाये

रहिमन गाली राखिए, बिन गाली सब सून गाली बिना न बोलते, बालक, वृद्ध, तरुण पर गाली में राखिए, नहीं लिंग का भेद वरना स्त्री जाति को, होगा इसका खेद. गाली मानो हमारे देश की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी है, परंतु बड़ी नाइंसाफी है कि महिला सशक्तीकरण के इस युग में भी गालियां […]

रहिमन गाली राखिए, बिन गाली सब सून
गाली बिना न बोलते, बालक, वृद्ध, तरुण
पर गाली में राखिए, नहीं लिंग का भेद
वरना स्त्री जाति को, होगा इसका खेद.
गाली मानो हमारे देश की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी है, परंतु बड़ी नाइंसाफी है कि महिला सशक्तीकरण के इस युग में भी गालियां सिर्फ स्त्रियों से ही संबद्ध होती हैं. लिफ्ट या सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों पर स्त्रियों से संबंधित गालियां खुदी हुई देख कर किसी भी सुसंस्कृत व्यक्ति, खास कर स्त्रियों का सिर शर्म से झुक जाता है.
विचारणीय यह है कि गालियां हमेशा स्त्रियों से ही संबंधित क्यों होती हैं? बाप, भाई या बेटों से संबंधित गालियां दिखायी या सुनायी क्यों नहीं देतीं? यह बात हमें कुछ सोचने पर विवश करती हैं. बर्बर खानाबदोश युग में खून के रिश्ते मायने नहीं रखते थे. पशु जगत के समान मानवों में भी उन्मुक्त यौन संबंधों की इतिहास पुष्टि करता है. लगता है कि पूछों के झड़ जाने मात्र से हमारी बर्बरता का अंत नहीं हुआ. अपनी सारी वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद हम आज भी वही हैं, वहीं हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि अवैध रिश्ते कायम करने की दमित इच्छा गालियों के रूप में सामने आ रही है.
गली-मोहल्लों के लुच्चे-बच्चे, क्या अनपढ़, क्या विद्वान, गालियों के मामले में अधिकतर लोगों में गजब का समाजवाद दिखता है. गाली के बिना जब कुछ मनुष्यों का जीवन इतना ही खाली है, तो उनसे इतनी गुजारिश है कि कम से कम इसमें लिंगभेद तो न करें, वरना स्त्रियां विवश होकर कहीं ये न कह दें : ‘जा रहे हट लंपट, न बोल गाली पटपट, पलट के दूंगी मैं तुङो कुदाली रे, मुङो समझो ना तुम पहलेवाली रे.’
डॉ उषा किरण, रांची

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