भारत की पावन भूमि अतीत में अंगरेजों की पराधीनता झेल चुकी है. 200 साल लग गये पराधीनता की जंजीर तोड़ ‘सोने की चिड़िया’ को आजाद होने में. पर जाते-जाते अंगरेज भारत भूमि पर बंटवारे की जो रेखा खींच गये, उससे सीमा पार के लाखों लोग अपनों से दूर हो गये.
बड़ी मुश्किल से यह सब कुछ हम भूले ही हैं कि आज कुरसी पर बैठे चंद नेता अपनी लालसा और सत्ता की भूख के चलते देश को फिर से बांटने पर तुले हुए हैं. कहीं किसी को तेलंगाना चाहिए, तो किसी को गोरखालैंड. कहीं विदर्भ की आग भड़की है, तो कहीं सौराष्ट्र का लावा उबल रहा है.
खैर, अंगरेजों ने जो रेखा खींची थी, वह समय की मांग थी और इतिहास की दास्तान. पर आज जो हो रहा है, उसमें न ही कोई हित दिखता है और न ही जनता की भलाई. दिख रही है तो संकीर्ण राजनैतिक मानसिकता, जो देश के टुकड़े करने पर उतारू है. आज के राजनेता अपने स्वार्थ के लिए जनता को बांट कर देश को अवनति की ओर ले जा रहे हैं. कहते हैं-एकता में बल होता है, पर ये कैसी एकता है जो देश व देशवासियों को बांट रही है?
।। आनंद कानू ।।
(सिलीगुड़ी)