विधानसभा चुनाव सुरक्षा-बलों के लिए आसान नहीं थे. उससे पहले नियंत्रण रेखा और सीमा पर हिंसक झड़पें तथा घुसपैठ की वारदात हो चुकी थीं. बहिष्कार की घोषणा के कारण चुनाव से पहले अलगाववादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिरासत में रखना पड़ा था.
यह सच है कि पिछले कुछ वर्षो से घाटी में आतंकी घटनाओं में कमी आयी है, लेकिन यह पाकिस्तान का अहसान नहीं, बल्कि भारतीय सुरक्षाबलों की कोशिशों, कश्मीरी जनता के बड़े तबके में अलगाववाद से मोहभंग और पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव का नतीजा है. मुफ्ती अनुभवी राजनेता हैं और मुख्यमंत्री के अलावा देश के गृहमंत्री भी रह चुके हैं. भाजपा के साथ गंठबंधन करना उनकी राजनीतिक सूझबूझ का भी परिचायक है.
ऐसे में उनके इस बेमानी बयान के गहरे अर्थ निकाले जा रहे हैं. क्या इसके जरिये वे भाजपा और केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से अलगाववादियों और पाकिस्तान को अपने पाले में रखना चाहते हैं? ऐसी कवायद पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी कर चुके हैं. खुद मुफ्ती भी इससे पहले 2002 में आतंकी संगठनों की हिमायत में बयान दे चुके हैं. उस वर्ष वे कांग्रेस के साथ गंठबंधन कर मुख्यमंत्री भी बने थे. लेकिन, अब उन्हें देश के बदलते राजनीतिक वातावरण को ध्यान में रखना चाहिए, जिसमें वह एक निर्णायक भूमिका में हैं. इसका एक उदाहरण उनका अपने राजनीतिक विरोधी सज्जद लोन को सरकार में लेना भी है, जो भाजपा के कोटे से मंत्री बने हैं. राज्य का जनादेश विकास और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए है. बेतुकी बयानबाजी से मुख्यमंत्री मीडिया में सुर्खियां तो बटोर सकते हैं, राज्य की जनता का भरोसा नहीं. इसलिए मुफ्ती को अपनी और सरकार की प्राथमिकताएं तय कर, विकास और सुशासन पर ध्यान देना चाहिए.