।। पुष्पेश पंत ।।
(अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार)
– पांच के बदले पचास मारने का नारा निर्थक है, लेकिन यह सुझाना तर्कसंगत है कि ‘लातों का जवाब सिर्फ बातों से’ देने का हठ हमारे लिए बेहद नुकसानदेह ही हो सकता है. –
पाकिस्तान की ओर से जम्मू–कश्मीर में नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण कर हमला किया गया, जिसमें पांच भारतीय सैनिक शहीद हो गये. इस बारे में भारत के रक्षा मंत्री एके एंटनी के संसद में दिये बयान ने खासा बवंडर पैदा कर दिया. उन्होंने पहले कहा कि इस वारदात को दहशतगर्दो तथा पाकिस्तानी सैनिकों की वर्दी पहने कुछ घुसपैठियों ने अंजाम दिया है. इस पर जब विपक्ष ने तत्काल उन्हें घेर लिया और यह जायज आरोप लगाया कि इन शब्दों के प्रयोग से उन्होंने पाकिस्तान सरकार को बच निकलने का मौका सुलभ करा दिया है, तो वह अप्रस्तुत हो गये.
बात तब और बिगड़ गयी जब भाजपाई नेताओं ने जम्मू में प्रसारित भारतीय सेना के उस आधिकारिक बयान को पेश कर दिया, जिसमें सीधे–सीधे पाकिस्तानी सैनिकों का जिक्र था. गंभीर आरोप यह था कि इस वक्तव्य को सदन में प्रस्तुत करने से पहले इसे प्रधानमंत्री कार्यालय को भी दिखलाया जा चुका था तथा उसका अनुमोदन भी लिया गया था. तो रणक्षेत्र से जारी सेना के बयान में फेरबदल की जरूरत क्यों पड़ी? क्या इसलिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगले माह अमेरिका में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलनेवाले हैं और अपना कार्यकाल समाप्त होते–होते एक ऐतिहासिक उपलब्धि को दर्ज कराने का मौका चूकना नहीं चाहते! इसीलिए शायद यह जरूरी है कि पाकिस्तान के साथ चालू संवाद किसी भी हालत में स्थगित न हो.
सदन के भीतर और बाहर भीषण कोलाहल के बाद एंटनी ने आखिर ‘भूल–सुधार’ किया– यह कबूल करते हुए कि पहला बयान गलत था, पर किसी साजिश के कारण नहीं बल्कि उस समय उपलब्ध जानकारी के आधार पर संभवत: जल्दबाजी में असमंजस पैदा करनेवाला सिद्ध हुआ.
एंटनी की छवि अब तक ईमानदार, सौम्य और मितभाषी व्यक्ति की रही है. निश्चय ही आज के भारत में यह छवि किसी नेता के ज्यादा काम नहीं आती. न ही कार्यकौशल या अनुभव का कोई मोल बचा है. शायद इसीलिए अपनी सरकार और पार्टी के दूसरे दरबारी नेताओं की अदूरदर्शिता व चापलूस अकलमंदी का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है. हमारी समझ में तमाम अविश्वसनीय लीपापोती और विदेश मंत्री की ‘चुराये अंखियां, बनाये बतियां’ वाली अदाकारी के बाद भी असली सवाल हमारे सामने मुंह बाये खड़ा है.
शोक–संताप, आक्रोश आदि का ज्वार दो–चार दिन के बाद थम जायेगा. फिर कोई अन्य विषय संसद का तापमान बढ़ाने लगेगा. पाकिस्तान चिरपरिचित अंदाज में अपनी जिम्मेवारी से हाथ झाड़ लेगा. एंटनी की भूल–सुधार से कोई फर्क अब नहीं पड़नेवाला. पाकिस्तान उनकी ‘जल्दी में हुई गलती’ का भरपूर लाभ वैसे ही उठाता रहेगा, जैसा शर्म अल शेख वाले बयान के बाद देखने को मिला था.
बहरहाल सोचने की बात यह है कि कब तक हमारी सरकार पाकिस्तान की जमीन से होनेवाले ऐसे हमलों का जवाब ‘संवाद जारी रखने का कोई विकल्प नहीं’ वाली लचर दलील को दुहराते हुए ‘भरोसा बढ़ाने वाले’ एकतरफा प्रयासों से देती रहेगी? यह सवाल पूछना भी नाजायज नहीं कि यह सब एक नूराकुश्ती जैसा दंगल तो नहीं है, जिसका एकमात्र उद्देश्य आगामी चुनावों के मद्देनजर अपने–अपने वोटबैंकों को बढ़ाना और भुनाना है?
हमारे प्रधानमंत्री और कुछ समझते हों या नहीं, यह जरूर जानते हैं कि भारत–पाक संबंधों को सामान्य बनाने में अपने योगदान से नोबेल शांति पुरस्कार पाने का मौका वह बहुत पहले गंवा चुके हैं. बचपन में जिस पिंड से वह बेघर हुए थे, उसे एक बार फिर देखने की भाव–विह्वलता से राष्ट्रहित का कोई नाता नहीं है. इसी तरह भारत–पाक रिश्तों में दोनों देशों के अवाम–नागरिक समाज की सदिच्छा या क्षमता के बारे में भी भ्रम पालना असंभव हो चुका है.
यह तर्क भी बेमानी है कि आर्थिक रिश्ते घनिष्ठ होने से दो सहोदर बैरियों के बीच तनाव घट जायेगा. यदि ऐसा होता तो चीन के साथ भारत के संबंध इस घड़ी इतने खराब नहीं होते. वह आज हमारा पहले नंबर का व्यापारिक साझीदार है, पर हिमालयी सीमांत पर नियंत्रण रेखा के उल्लंघन की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है. धौंस–धमकी अलग से.
कड़वा सच यही है कि कांग्रेस हो या भाजपा, या फिर सपा, इनके लिए पाकिस्तान विदेश नीति का नहीं, बल्कि चुनावी राजनीति का मुद्दा बन चुका है. कांग्रेस और सपा की होड़ अल्पसंख्यक मतदाताओं के तुष्टिकरण की है, तो भाजपा का लक्ष्य है देश की एकता– अखंडता के लिए अपने को ही एकमात्र जागरूक–जिम्मेवार राजनीतिक दल साबित करना. पाकिस्तान के प्रति सख्त रुख अपना कर वह आशंकित हिंदू बहुसंख्यक मतदाताओं के ध्रुवीकरण की चेष्टा करती नजर आती है.
साम्यवादी दल पश्चिम बंगाल की हार से अब तक लहुलूहान कराह रहे हैं. उनकी तोतारटंत में शहरी–अंगरेजीदां और ‘आधुनिक’ (पश्चिमी) सोचवाले तबके की तरह पाकिस्तान को समझने और वहां की निर्वाचित गैर–फौजी सरकार को मजबूत होने का मौका देने का परामर्श ही है.
मीडिया अंगरेजी का हो या भारतीय भाषाओं का, छापे का हो या इलेक्ट्रॉनिक, वहां चल रही बहस संपादकों, स्तंभ लेखकों, विशेषज्ञ विश्लेषकों की निजी पक्षधरता और पूर्वाग्रहों को ही प्रतिबिंबित करती दिखलाई दे रही है. ऐसे में यह आशा निमरूल है कि संकट निवारण का कोई सार्थक प्रयास हो जायेगा.
ईमानदारी का तकाजा है कि यह बात दो टूक कही जाये कि इस दर्दनाक स्थिति के लिए कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की अहंकारी लापरवाही और अपारदर्शी नीति–निर्धारण, उत्तेजित विपक्ष की बौखलाहट से कहीं अधिक घातक सिद्ध होते रहे हैं. मौजूदा केंद्र सरकार की विश्वसनीयता रत्ती भर शेष नहीं. इसीलिए जब कोई मंत्री यह अपील करता है कि सीमा पर संकट का सामना पूरे देश को एकजुट होकर एक स्वर में करना चाहिए, तो कोई उसके साथ खड़े होने को तैयार नहीं दिखलाई देता.
सभी जानते हैं कि शिकंजे में फंसी गरदन निकलते ही इन मदांध शासकों के तेवर बदल जाएंगे. पाकिस्तान के खतरे वाली लाठी भांज कर वह विपक्ष को पंगु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़नेवाली. विपक्षी भाजपा भी जानती है कि खाद्य सुरक्षा बिल का विरोध कुछ दिलानेवाला नहीं, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी की चुनरिया दागदार है. इसीलिए सामरिक सुरक्षा के विषय पर बहस को ही गरम रखना परमावश्यक है.
दुर्भाग्य यह है कि इन सब के बीच पाकिस्तान की तरफ से इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी. मनमोहन सरकार की कमजोरियों से वह तथा उनका आका अमेरिका, दोनों भली–भांति परिचित हैं. पांच के बदले पचास मारने का नारा निर्थक है, लेकिन यह सुझाना तर्कसंगत है कि ‘लातों का जवाब सिर्फ बातों से’ देने का हठ हमारे लिए बेहद नुकसानदेह ही हो सकता है.