।। अवधेश कुमार ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
आजाद भारत के इतिहास में यह संभवत: पहली बार है जब एक आइएएस अफसर के निलंबन के मुद्दे पर केंद्र एवं एक राज्य सरकार इस तरह आमने–सामने है. तमाम आरोपों की अनसुनी करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने युवा आइएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के हाथों आरोपपत्र भी थमा दिया है. सपा के थिंक टैंक एवं वरिष्ठ सांसद शिवपाल सिंह यादव ने तो यहां तक कह दिया कि केंद्र चाहे तो अपने सारे आइएएस अफसर बुला ले, वे प्रदेश के अधिकारियों से राज्य चला लेंगे. इतना सबकुछ होने पर भी पीएम ने सिर्फ यह कहा है कि हर मामले के नियम हैं और इस मामले में भी नियम के तहत काम होगा.
यह भारतीय राजनीति की विडंबना है कि अपनी भूल स्वीकार कर उसका परिमार्जन करने की बजाय राजनीतिक दल व राजनेता स्वयं को सर्वोच्च शक्तिमान साबित करने पर तुल जाते हैं. इसका तीन पहलुओं से विश्लेषण किया जा सकता है. एक, निलंबन का कारण, दूसरा, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के साथ व्यवहार के नियम और तीसरा, केंद्र के अधिकार व उसकी भूमिका. दुर्गा शक्ति को नोएडा के कादलपुर गांव में मसजिद की दीवार गिराने के आरोप में निलंबित किया गया.
प्रदेश सरकार का कहना है कि रमजान के महीने में ऐसा करने से तनाव बढ़ रहा था. जबकि सच यह है कि मसजिद का निर्माण गैरकानूनी तरीके से किया जा रहा था, जमीन सरकारी थी और दुर्गा को जैसे ही सूचना मिली, अपना कर्तव्य निभाते हुए वह वहां गयी और दीवार गिराने के लिए ग्रामीणों को समझाया.
प्राय: अधिकारी स्वयं स्थल पर जाकर ऐसा नहीं करते और अपने मातहत अधिकारी–कर्मचारी को भेज कर कार्रवाई करवाते हैं. इस त्वरित कार्रवाई के लिए दुर्गा को पुरस्कृत किया जाना चाहिए था. और फिर यह तो सुप्रीम कोर्ट का भी निर्देश है कि सरकारी जमीन पर मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारा या गिरिजाघर आदि का गैरकानूनी तरीके से निर्माण न होने दिया जाये.
सच तो यह भी है कि वहां सांप्रदायिक तनाव था ही नहीं. पुलिस एवं इंटेलिजेंस की रिपोर्ट में इसकी पुष्टि हो चुकी है. एक स्थानीय नेता के भाषण का टेप यूपी सरकार की पोल खोलने के लिए काफी है. वे नेता यहां के अवैध बालू व्यापार, भूमि व्यापार से संबद्ध हैं और दुर्गा ने जिस तरह की कार्रवाई ऐसे लोगों के खिलाफ की थी उससे अवैध कारोबार से जुड़े माफिया नाराज थे.
यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि संसदीय लोकतंत्र और हमारे संविधान में चुने हुए जनप्रतिनिधियों का स्थान सर्वोच्च है. एक अधिकारी या नौकरशाह को उसके मातहत एवं उसके निर्देश पर काम करना है. पर सभी के बीच दायित्वों और भूमिकाओं का एक संतुलन भी बनाया गया है. कई बार अधिकारी अपनी संविधान प्रदत्त शक्ति का गलत इस्तेमाल आम लोगों के विरुद्ध करते हैं. ऐसे मामले में राजनीतिक दखल आवश्यक होता है. लेकिन दुर्गा के मामले में यह बात लागू नहीं होती.
तमाम तथ्य बताते हैं कि दुर्गा माफियाओं और अपराधियों की राजनीतिक पहुंच का शिकार हुई है. सपा की सरकार आने के बाद ये तत्व जिस तरह सक्रिय होते हैं, उसमें कोई अधिकारी इन्हें छूने का साहस नहीं करता. लेकिन दुर्गा ने ऐसा किया है. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि सपा सरकार के कार्यकाल में कई बार दंगे हुए हैं, लेकिन कभी किसी अधिकारी के विरुद्ध इस तरह त्वरित कार्रवाई नहीं हुई. अच्छा होता यदि राज्य सरकार अपनी भूल सुधार कर बड़प्पन दिखाती और यह केंद्र व राज्य सरकार के बीच टकराव का मुद्दा नहीं बनता.
आइएएस अधिकारी राजनीतिक नेतृत्व के लिए आंख, कान ही नहीं, मस्तिष्क भी होते हैं. इनके द्वारा ही नेता शासन चलाने से लेकर विधि–विधान के निर्माण तक का कदम उठा पाते हैं. इसलिए राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका इस तरह प्रेरणा देने की होनी चाहिए, ताकि ये अधिकारी ईमानदारी और निष्ठा से एक लोकसेवक की भूमिका निभाएं. लेकिन दुर्गाशक्ति मामले में यूपी सरकार की भूमिका इसके ठीक विपरीत है.
देश की संपत्ति, पर्यावरण तथा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा को अपना कर्तव्य माननेवाली अधिकारी का निलंबन राजनीतिक नेतृत्व का ऐसा अधिनायकवादी कदम है, जिसके पीछे अवैध निर्माण और खनन के कारोबार की मुख्य भूमिका है. आप उत्साह से भरी किसी नयी अधिकारी को अगर इस तरह निलंबित कर देंगे, तो कोई अधिकारी ईमानदारी और साहस के साथ कार्रवाई की हिम्मत कैसे कर सकेगा? यह अपराध, भ्रष्टाचार एवं राजनीति के नापाक गंठजोड़ का प्रमाण है. इसलिए इसका पुरजोर विरोध होना ही चाहिए.