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भाषा को दुर्गति से बचाना भी जरूरी

शिकोह अलबदर प्रभात खबर, रांची कल शाम मुङो मेरे बचपन के एक दोस्त जो आज शिक्षक हैं, की याद आ गयी. कॉलेज के दिनों में उन्होंने मुङो एक प्रोफेसर साहब की घटना सुनाई थी, जिन्हें हिंदी भाषा से इतना अधिक लगाव था कि उनकी बात कोई समझ नहीं पाता था. वाकया सच था या नहीं, […]

शिकोह अलबदर
प्रभात खबर, रांची
कल शाम मुङो मेरे बचपन के एक दोस्त जो आज शिक्षक हैं, की याद आ गयी. कॉलेज के दिनों में उन्होंने मुङो एक प्रोफेसर साहब की घटना सुनाई थी, जिन्हें हिंदी भाषा से इतना अधिक लगाव था कि उनकी बात कोई समझ नहीं पाता था.
वाकया सच था या नहीं, इसकी मैंने कभी खोज-खबर नहीं ली, लेकिन उस घटना के संदर्भ में मुङो सरकारी शिक्षा के हालात से रू-ब-रू होने का मौका जरूर मिला है. हिंदी का असीम लगाव प्रोफेसर साहब के लिए संकट तब बन गया जब एक बार उनके पेट में दर्द हुआ था. उन्होंने अपने सहयोगी से हिंदी भाषा के भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि उनके वात में शनै:शनै पीड़ा हो रही है. सहयोगी ने उन्हें डॉक्टर से मिलने की सलाह दी.
प्रोफेसर साहब ने कॉलेज से बाहर रिक्शा लिया. रिक्शा वाले से अपनी हिंदी भाषा का प्रयोग करते हुए कहा : त्रिचक्र के चालक, वात में शनै : शनै पीड़ा हो रही है, चिकित्सालय ले चलो. रिक्शे वाला उनकी बात को ना समझ सका और पूछा कि वह क्या कहना चाह रहे हैं. लेकिन आम बोलचाल की भाषा की कमी होने के कारण प्रोफेसर साहब उसे अपनी बात नहीं समझा सके. रिक्शा वाले ने यह सोच कर रिक्शा पर बैठा लिया कि जहां मन होगा वह स्वयं उतर जायेंगे. उनके पेट में दर्द बढ़ा जा रहा था सो उन्होंने रिक्शा वाले से आग्रह किया कि उनके वात में शनै:शनै पीड़ा हो रही है अत: त्रिचक्र की गति धीमी रखें. हाल यह हुआ कि जब भी वह यह बात कहते, रिक्शा वाला यह समझता कि प्रोफेसर साहब को रिक्शा में बैठने में मजा आ रहा है और वह रिक्शा तेज चलाता.
रिक्शा की तेज गति के कारण पेट का दर्द बढ़ता गया और खुद को बचाने के लिए प्रोफेसर साहब को बीच सड़क पर कूदना पड़ा. पेट के दर्द से हाल तो बुरा था ही, चोट लगने के कारण उनकी स्थिति और अधिक खराब हो गयी. खैर लोगों की सहायता से वे डॉक्टर के पास पहुंचे और इलाज कराया. संदर्भ यह था कि मुङो राज्य के सरकारी स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली विज्ञान की पुस्तक हाथ लगी थी जिसे मैं बड़ी उत्सुकता से पढ़ रहा था लेकिन उसमें इस्तेमाल किये शब्दों ने मुङो परेशान कर दिया.
थर्मामीटर की जगह तापमापी, स्टार्च के स्थान पर मंड, मशरूम की जगह छत्रक, पौधे की जगह पादप, तूफान की जगह झंझावात, बिजली गिरने की घटना को तड़ित झंझावात और ऐसे ही कई कठिन शब्द के इस्तेमाल ने मुङो शिक्षा पद्धति के हालात पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया. क्या ऐसे शब्दों को बच्चे समझ पाते होंगे अथवा नहीं? जब बच्चे शब्द समझ ही नहीं पाते होंगे तो वे सीखेंगे क्या, यह सवाल मेरे मन में कौंधता रहा.
भाषा का संरक्षण आवश्यक है लेकिन दुर्गति ठीक नहीं. याद आया कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने हिंदी के कई शब्द अंगरेजी में शामिल किये हैं, मन थोड़ा खुश हुआ. सोचना लाजिमी था कि भाषा के संरक्षण का हिमायती होना अच्छी बात है लेकिन प्रोफेसर साहब वाली हालत न हो, यह भी जरूरी है.

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