।। चंदन श्रीवास्तव ।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)
– लोकतांत्रिक कहलानेवाले इस देश की राज्यसत्ता की भीतरी बनावट ऐसी क्यों है कि वह ज्यादातर लोगों को पहले गरीब बनाती है, फिर उनकी गरीबी पर तरस खाकर योजना चलाती है! –
तेईस बच्चों की अकाल मौत को सहने–देखनेवालों की दुनिया कितनी तेजी से बदली है! कल तक जो स्कूल था, अब वह एक मरघट है. गंडामन गांव के स्कूल के लिए मरघट का रूपक सही है, सीधे–सादे ढंग से भी क्योंकि जिस गांव के स्कूल में यह घटना घटी वहां अभिभावकों ने बच्चों को ठीक स्कूल के सामने दफनाया, और बहाने से भी क्योंकि गांव के लोग कह रहे हैं कि अब अपने बच्चों को दोबारा उस स्कूल में कभी नहीं भेजेंगे.
याद कीजिए, परंपरा के हिसाब से मरघट ऐसी जगह है जिसकी तरफ जीवितों का मुंह फेर कर दोबारा देखना मना है. उस हतभागी गांव में अर्थ और भी चीजों का बदला है. कल तक जिसे महिला सशक्तीकरण का एक और सबूत मान कर पेश किया गया, अब वही शिक्षिका ‘भगोड़ा अपराधी’ घोषित हो चुकी है! कुपोषण की काट कह कर बच्चों को जो भोजन परोसा गया, मन के किसी कोने में वह जहर बन चला है. और, मशरख अब किसी जगह का नहीं, एक धधकते हुए मातम का नाम है, एक ऐसी आग जिसे मुआवजे की कोई भी रकम और भड़का तो सकती है, बुझा नहीं सकती!
भोजन जहर बन जाये, स्कूल मरघट कहलाये, शिक्षक के चेहरे में अपराधी दिखे, तो ठिठक कर सोचना चाहिए! सोचना चाहिए कि बुनियाद में ही कोई गलती है जो शब्दों के अर्थ इस तरह उल्टे लटकने को बाध्य हुए हैं. ऐसे में जो वीर हैं वे वार करने से पहले अपने हथियार की धार पर शक करते हैं और जिनको अपने सर्वज्ञानी होने का गुमान है वे समाधान सुझाने की जगह अपने ज्ञान को ही फिर से ठोक–बजा कर देखते हैं. अपने ‘हथियार’ और ‘ज्ञान’ पर शक करना, अपने हुनर और होशमंदी की जांच करना बड़े धीरज की मांग करता है.
मशरख (छपरा) के एक गांव के स्कूल में मिड–डे मील खाने से तेइस बच्चों की जान गयी, लेकिन बिहार की राजनीति में आत्म–शंका की ऐसी कोई भावना दिखी आपको? सत्तापक्ष किसी सर्वज्ञानी की तरह पूरे प्रकरण को साजिश का नतीजा बताने पर तुला है और विपक्ष–बहादुर वार कर रहा है कि एक अदद स्कूल तक तो संभाल नहीं पाये, पूरे बिहार को कैसे संभालोगे, सो अभी के अभी गद्दी छोड़ो!
सबके पास अपने को बेदाग साबित करने के लिए एक से बढ़ कर एक तर्क हैं. केंद्र का तर्क अपनी जगह दुरुस्त है कि बिहार के स्कूलों में मिड–डे मील बनाने के लिए कायदे के रसोईघर और जरूरत भर के बर्तन नहीं हैं, जबकि राशि दी जा चुकी है; इसलिए मिड–डे मील के प्रावधानों के अमल में कोताही बरतने का दोष राज्य सरकार का है.
केंद्र के इस तर्क की काट में अगर राज्य सरकार कह रही है कि कानून की भावना के अनुरूप मिड–डे मील योजना के कारगर क्रियान्वयन का जिम्मा स्थानीय प्रशासन (स्कूल की प्रबंध समिति, पंचायत और शिक्षक) का है, इसलिए इस मामले में हुई किसी भी चूक का दोष स्थानीय प्रशासन में खोजा जाना चाहिए, तो उसकी बात भी सच है. विपक्ष कह रहा है कि बच्चों को अस्पताल पहुंचाने में देरी हुई, निगरानी का शासकीय तंत्र असफल रहा और गरीब परिवार के जान की कीमत मुआवजे के रकम के रूप में राज्य सरकार ने कम लगायी, तो वह भी अपनी जगह ठीक है.
सब अपनी–अपनी जगह ठीक हैं, मगर अपने को सही साबित करने के लिए जो सच परोस रहे हैं वह अधूरा सच है. पूरा सच बड़ा भयावह है. यह पूरा सच बाकियों के अधूरे सच को झूठा साबित कर रहा है. पूरा सच यह है कि एक–दो नहीं, तेइस बच्चों की जान गयी और मासूमों की जान जाने के साथ एक झटके में विश्वास की बुनियाद पर पनपने वाले कई रिश्तों की हत्या हो गयी. उस विश्वास की हत्या हुई जिसके सहारे कोई नागरिक अपनी सुरक्षा का जिम्मा राजसत्ता को सौंपता है. उस विश्वास की हत्या हुई जिसके सहारे कोई अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षक के हाथों में सौंपता है. और उस विश्वास की भी हत्या हुई जिसके दम पर खेतिहरों का यह देश सदियों से अन्न में सृष्टि के पालनहार ब्रह्म के दर्शन करता आया है.
विश्वास की बुनियाद पर पनपनेवाले इन बुनियादी रिश्तों की हत्या पर सभी मौन हैं! किसी को ये हत्याएं दिखें तब तो कोई बोले. और ये हत्याएं इसलिए नहीं दिख रहीं, क्योंकि सब मान कर चल रहे हैं कि मिड–डे मील योजना का विचार कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिहाज से एकदम ठीक है. ‘योजना के विचार में कोई गड़बड़ी नहीं है, अमल में ही गड़बड़ी है’— गंडामन स्कूल की हृदयविदारक घटना की व्याख्या करते वक्त सबकी नजर पर यही चश्मा लटका है. इसी चश्मे को पहन कर केंद्र ने घटना के 24 घंटे के भीतर कह दिया कि हमने तो पहले ही चेतावनी जारी की थी, लेकिन यह तथ्य छुपा गया कि चेतावनी सिर्फ बिहार को नहीं, कई और राज्यों को भी जारी की गयी थी, और मिड–डे मील को बच्चों के लिए मारक बतानेवाली खबरें वहां से भी आ रही हैं. विचार के इसी चश्मे से विपक्ष ने राज्य सरकार को दोषी ठहराया और राज्य सरकार ने दोष स्थानीय प्रशासन (शिक्षिका, पंचायत, स्कूल प्रबंधन) पर मढ़ दिया.
मिड–डे मील के विचार को यह कह कर जायज ठहराया जाता है कि इससे कुपोषण मिटेगा, स्कूलों में बच्चों का दाखिला बढ़ेगा, सहभोज से जाति के भेद मिटेंगे, वंचित तबके और महिलाओं को स्थानीय स्तर के प्रशासन में प्रतिनिधित्व मिलेगा. मिड–डे मील को जायज ठहराने की इस कवायद में भुला दिया जाता है कि संविधान जहां नागरिक को जीवन जीने के अधिकार देने की बात कहता है, वहीं एक शब्द ‘गरिमा’ भी जोड़ता है.
जीवन गरिमामय तब होता है जब नागरिक रोटी–कपड़ा–मकान के लिए किसी के आगे हाथ पसारने को मजबूर न हो. लेकिन मिड–डे मील का विचार मान कर चलता है कि गरीबों को जीवन का अधिकार तो है, पर जीवन की गरिमा का नहीं, क्योंकि वे अपना और अपने बच्चों का पेट अपनी परिस्थितियों से लाचार खुद नहीं पाल सकते, इसलिए राज्य को उनकी मदद के लिए आगे आना होगा. फिर कोई नहीं पूछता यह जरूरी सवाल कि आखिर इस देश के करोड़ों नागरिक इस दशा को कैसे पहुंचे कि रोटी–कपड़ा–मकान के लिए उन्हें राज्य के आगे हाथ पसारना पड़े.
अगर स्वराज का विचार कहता है कि शासन जितना कम हो उतना ही अच्छा, तो फिर मिड–डे मील का विचार स्वराज की धारणा के उलट है, क्योंकि यह राजसत्ता को नागरिक के घर के भीतर तक ले जाता है, यह राजसत्ता को लोगों का ‘माई–बाप’ बना डालता है.
अब ‘माई–बाप’ से कौन पूछे कि लोकतांत्रिक कहलानेवाले इस देश की राज्यसत्ता की भीतरी बनावट ऐसी क्यों है कि वह ज्यादातर लोगों को पहले गरीब बनाती है, फिर उनकी गरीबी पर तरस खाकर मिड–डे मील सरीखी योजना चलाती है– एक ऐसी योजना जो गरीबों से पहले जीवन का गर्व छीनती है और बाद में जीवन छिन जाये तो यह दोष भी गरीबों पर मढ़ती है!