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बाकी पक्षों की राय पर भी गौर करें

* जातीय रैलियों पर रोक इलाहाबाद हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में जाति आधारित राजनीतिक रैलियों से सामाजिक एकता व समरसता को नुकसान पहुंच रहा है. तर्क यह भी था कि संविधान जाति–धर्म–लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न करने की बात कहता है. इस पर हाइकोर्ट का […]

* जातीय रैलियों पर रोक

इलाहाबाद हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में जाति आधारित राजनीतिक रैलियों से सामाजिक एकता समरसता को नुकसान पहुंच रहा है. तर्क यह भी था कि संविधान जातिधर्मलिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने की बात कहता है. इस पर हाइकोर्ट का तात्कालिक फैसला आया है कि पूरे सूबे में कहीं भी जाति के आधार पर रैली नहीं होनी चाहिए.

अदालत का यह अंतिम फैसला नहीं है. उसने मामले से जुड़े अन्य पक्षों, मसलन कांग्रेस, बीजेपी, सपा, बसपा और राज्य तथा केंद्र सरकार के अलावा चुनाव आयोग को भी नोटिस जारी किया है. अगली सुनवाई 25 जुलाई को होगी. अदालत के तात्कालिक फैसले से बसपा, सपा के हितों को चोट पहुंचेगी, क्योंकि बसपा ने यूपी के 40 जिलों में ब्राह्म भाईचारा रैली आयोजित की है और सपा ने भी हाल में ऐसा सम्मेलन किया है. कांग्रेस ने यह जताने के लिए फैसले का स्वागत किया है कि सिर्फ वही राष्ट्रहित की राजनीति करती है, शेष दल या तो सांप्रदायिक हैं या जातिवादी.

बीजेपी भी कह सकती है कि फैसले से अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण और जातियों को वोटबैंक में बदलने की क्षेत्रीय पार्टियों की समाजतोड़क राजनीति पर लगाम लगेगी. यह सही है कि संविधान जातिधर्म के आधार पर भेदभाव करने की बात कहता है, पर यह बात भी उतनी ही सही है कि संविधान कुछ विशेष जाति और धर्म के लोगों को ऐतिहासिक रूप से वंचित मान कर उनके अधिकारों की रखवाली के लिए विशेष उपाय करने के लिए भी कहता है.

कोई दल जब जातिविशेष के लोगों के हितों को चुनावी मैदान में मुखर करके उसकी राजनीति करता है, तो संविधान की इसी भावना के अनुरूप लोकतांत्रिक राजसत्ता में उनका जायज हक दिलाने की कोशिश करता है. इसी की पैरोकारी में विभिन्न सरकारों को विधायिका से लेकर नौकरशाही तक आरक्षण की नीति अपनानी पड़ी है.

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि भारत की सामाजिक संरचना ऐसी है कि एक से ज्यादा जातियों की बात कहे बिना किसी पार्टी को सत्ता में आने का सौभाग्य हासिल नहीं हो सकता. पार्टियां सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति अपनाती ही इसलिए हैं, ताकि उनके परंपरागत वोटबैंक में अन्य जातियां जुड़ें और वे खुद को वृहत्तर समुदाय का प्रतिनिधि साबित कर सकें. इस लिहाज से देखें तो जातिसमुदायों को लामबंद करने की राजनीति समताकारी लोकतंत्र स्थापित करने की दिशा में एक कदम है. इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत के अंतिम फैसले में बाकी पक्षों की राय की भी अनुगूंज सुनायी देगी.

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