जनतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकारों या पर्यावरण के संरक्षण जैसे मुद्दों पर सदाशयी घोषणाओं से बढ़ कर मतैक्य की संभावना सीमित है. हमारी समझ में रूस के साथ ‘नये रिश्ते की नयी बुनियाद’ रखने के बारे में सोचने का वक्त आ गया है.
एक जमाना वह भी था जब ‘सिर पर लाल टोपी रूसी’ वाला तराना हिंदुस्तानियों को और रूसियों को झुमाता था और अब यह मौजूदा दौर है, जिसमें रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्र ‘होठों में ऐसी बात मैं दबा के चली आयी’ वाले अंदाज में संपन्न होता है और मेहमान तथा मेजबान दोनों ही सुर्खियों से नदारद रहते हैं.
विचित्र बात यह है कि जब यह सूचना मिलती है कि पुतिन के साथ क्रीमिया के प्रधानमंत्री भी यहां पधारे थे, तब हमारा विदेश मंत्रलय यह बयान जारी करता है कि इस कार्यक्रम की आधिकारिक जानकारी उसे नहीं थी. दूसरी तरफ यह सुझा कर गाल बजानेवाले भी कम नहीं, जो दावा कर रहे हैं कि इसके पहले किसी सरकार में इतना दम नहीं था, जो अमेरिका की नाराजगी से बेपरवाह अपने राष्ट्रहित में ऐसा स्वाधीन फैसला ले सकती! गौरतलब है कि इस साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर भारत के शाही मेहमान अमेरिकी सदर ओबामा होंगे और मोदी के आलोचक यह लांछन लगाते नहीं थक रहे थे कि कैसे वह अमेरिकी पूंजीपतियों के लिए पलक पांवड़े बिछाने को उतावले हो रहे हैं. अब कहा जा सकता है कि पुतिन और उनके साथ क्रीमिया के प्रधानमंत्री के भारत पहुंचने से यह संदेश अनायास भेजा जा रहा है कि भारत की विदेश नीति आज भी असंलग्न ही है और किसी बाहरी शक्ति के दबाव में नहीं!
1970 वाले दशक से, जब बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष के समय भारत-सोवियत मैत्री संधि पर हस्ताक्षर हुए थे (कई विद्वानों के अनुसार हमारी गुटनिरपेक्षता का क्षय हो गया था) तथा अफगानिस्तान में रूसी सैनिक हस्तक्षेप की आलोचना न करने की वजह से भारत अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अलग-थलग पड़ गया था, हमारे सामरिक एवं आर्थिक संबंध असाधारण रूप से घनिष्ठ रहे हैं. सच तो यह है कि 1950 के दशक के मध्य से ही भारत को सोवियत संघ से महत्वपूर्ण राजनयिक समर्थन तथा दुर्लभ आर्थिक-तकनीकी सहायता का लाभ मिलता रहा है. सोवियत संघ के विघटन के बाद भी पुतिन के पहले कार्यकाल तक ‘करीबी’ जगजाहिर रही है. जिस वक्त रूस अराजकता की कगार पर पहुंचा था तथा भीषण आर्थिक उथल-पुथल से ग्रस्त था, भारत द्वारा बड़े पैमाने पर सैनिक साजो-सामान की खरीद तथा साइबेरिया में तेल शोध के लिए अरबों डॉलर के पूंजी निवेश ने उस पस्त महाशक्ति को बहुत राहत पहुंचायी थी. बहरहाल, यह आज ‘बीति ताहि बिसारिये’ वाली बात है.
इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि पुतिन का यूक्रेन तथा क्रीमिया में हस्तक्षेप गंभीर अंतरराष्ट्रीय संकट को जन्म देनेवाला है. यदि मध्य-पूर्व के दलदल में अमेरिका और उसके पश्चिमी साथी इतनी बुरी तरह नही फंसे होते, तो पुतिन के रूस की घेराबंदी कहीं अधिक खूंखार तरीके से की जा रही होती. जो आर्थिक प्रतिबंध रूस पर लगाये गये हैं, उनका समर्थन भारत नहीं करता, परंतु इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि पहले जैसी गर्मजोशी भारत-रूस के रिश्तों में अब नहीं महसूस होती. भारत ने अपनी सामरिक जरूरतों की आपूर्ति के लिए सैनिक साजो-सामान दूसरे देशों से खरीदना शुरू कर दिया है, जिनमें अमेरिका ही नहीं, इजरायल भी शामिल है. दूसरी तरफ बरसों के अंतराल के बाद रूस ने यह फैसला किया है कि वह पाकिस्तान को भी सैनिक सामान बेचेगा. पुतिन ने भारत को यह समझाने की कोशिश की है कि यह कदम भारत के हित के प्रतिकूल नहीं है. रूस पर निर्भरता के कारण उस पर रूस का राजनयिक असर दक्षिण एशिया में स्थायी शांति की संभावना बढ़ायेगा- कम नहीं करेगा. आज के पाकिस्तान की जमीनी असलियत को देखते हुए इसे गंभीरता से लेना कठिन है. बहरहाल..
यह याद दिलाने की जरूरत है कि पुतिन का भारत का यह दौरा पूर्वनिश्चित-पारंपरिक ‘व्यवस्था’ के तहत हुआ है, जिसमें इस तरह की वार्षिक शिखर वार्ताओं का प्रावधान है. कुछ साल पहले जब पुतिन भारत पधारे थे, तब उन्होंने भारत सरकार पर यह दबाव बनाया था कि एडमिरल गोर्शकोव नामक जिस विमानवाहक पोत को भारत रूस से खरीद रहा है, उसकी बढ़ी कीमत देने को वह राजी हो जाये. विडंबना यह थी कि देरी के लिए भारतीय पक्ष नहीं, स्वयं रूस जिम्मेदार था. थोड़ा मनोमालिन्य इस बात से भी बढ़ा था कि भारत को परमाणविर्क ईधन की आपूर्ति के मामले में रूस ने उसे निराश किया था. परमाणविक अप्रसार संधि विषयक इस ‘निषेध’ में रूस का रुख अमेरिका, जापान एवं ऑस्ट्रेलिया से अलग नहीं था. रही बात साइबेरिया के तेल गैस भंडार की, तो बदली परिस्थितियों में चीनी ग्राहक रूस को भारत की तुलना में कहीं आकर्षक लग सकते हैं. भारत तक मध्य-एशिया तथा पाकिस्तान के रास्ते पाइपलाइन बिछाने की तुलना में पश्चिमी चीन तक गैस-तेल पहुंचाना सहज तो है ही, साथ ही चीन का दूरदर्शी राजनय इस अखाड़े में भारत को पछाड़ता रहा है. चीन की आर्थिक स्थिति भी उसका पलड़ा भारी करती है. इस बात को रेखांकित करने की जरूरत है कि इस दौरे पर पुतिन तामिलनाडु में कुडनकुलम संयंत्र के निरीक्षण के लिए नहीं गये, जिसका निर्माण रूस के सहयोग से किया गया है. जो चर्चा सुनने को मिली, वह हीरों को तराशने पर केंद्रित रही.
कहने को पुतिन की पार्टी का नाम यूरेशियाई है, परंतु वर्तमान रूस का स्वाभाविक झुकाव यूरोप की तरफ ही है. मध्य एशियाई गणराज्यों के अलग होने के बाद रूस की एशियाई पहचान निरंतर धूमिल हुई है. चेचेन्या तथा दागिस्तान में कट्टरपंथी इसलामी आतंकवाद के संक्रमण ने भी पुतिन को इन ‘पुछल्लों’ से ‘निजात’ पाने के लिए ही उद्यत किया है. भारत के लिए यह भरम पालना नादानी होगा कि इस मोर्चे पर कोई सार्थक जुगलबंदी साधने में पुतिन मददगार होंगे. भारत-रूस रिश्ते नेहरू तथा इंदिरा गांधी के शासनकाल में समाजवादी विचारधारा से भी पुष्ट होते रहे थे. आज इसका नामोनिशान तक नहीं बचा है.
सोचने लायक बात यह है कि महज रस्म अदायगी में आस्था न रखनेवाले पुतिन को भारत से क्या अपेक्षा है? इसी तरह, राष्ट्रहित की यथार्थपरक परिभाषा करनेवाले मोदी की नजर में रूस की क्या अहमियत है? अतीत की मधुर स्मृतियां भविष्य में बहुत देर तक काम आनेवाली नहीं. इसका यह अर्थ नहीं कि रूस या भारत एक-दूसरे को नजरअंदाज कर सकते हैं. एनडीए-2 के कार्यकाल में भारत यूपीए-2 से भिन्न है, पर यह स्पष्ट नहीं है कि कब तक हमारा आकलन ‘उदीयमान शक्ति’ के रूप में होता रहेगा. जनतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकारों या पर्यावरण के संरक्षण जैसे मुद्दों पर सदाशयी घोषणाओं से बढ़ कर मतैक्य की संभावना सीमित है. हमारी समझ में रूस के साथ ‘नये रिश्ते की नयी बुनियाद’ रखने के बारे में सोचने का वक्त आ गया है.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com