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भारत में हम अकसर अपनी सीमित राजनीति में व्यस्त रहते हैं. हम भूल जाते हैं कि दुनिया भी हमें देख रही है, और समय के साथ उसकी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. यह पर्यवेक्षण साधारण लोगों के जेहन में भी है. इस निरंतर मूल्यांकन के कारण हमें ठहर कर सोचना चाहिए.. कुछ दिन पहले ही […]

भारत में हम अकसर अपनी सीमित राजनीति में व्यस्त रहते हैं. हम भूल जाते हैं कि दुनिया भी हमें देख रही है, और समय के साथ उसकी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. यह पर्यवेक्षण साधारण लोगों के जेहन में भी है. इस निरंतर मूल्यांकन के कारण हमें ठहर कर सोचना चाहिए..

कुछ दिन पहले ही मैं एक वार्षिक भारत-फ्रांस साहित्यिक गोष्ठी की अध्यक्षता कर फ्रांस से लौटा हूं. इस आयोजन ने मुङो साहित्य और अन्य क्षेत्रों में सक्रिय ढेर सारे लोगों से मिलने-जुलने का अवसर दिया. फ्रांस के शहर में भारत की घटनाओं के बारे में लोगों में दिलचस्पी है और आश्चर्यजनक रूप से वे हमारे यहां के राजनीतिक घटनाक्रम से परिचित हैं. मेरी जिन लोगों से बात हुई, उनमें सरकारी लोगों के अलावा पुराने भारत-प्रेमी, विद्वान और युवा उद्यमी शामिल थे, जो बहुत ध्यान से परख रहे हैं कि भारत के पास अभी उनके लिए क्या है.

मैं दो बातों पर चर्चा केंद्रित कर रहा हूं. ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी पर अकसर बातें होती रहती हैं, बल्कि इसलिए कि वे महत्वपूर्ण हैं. पहली बात यह है कि फ्रांसीसी लोग नरेंद्र मोदी के प्रादुर्भाव और उनके नेतृत्व में चल रही सरकार के कामकाज को बहुत ध्यान से देख रहे हैं. इस दिलचस्पी में प्रशंसा भी निहित है, लेकिन इसमें जिज्ञासा का तत्व भी बहुत है. इस नयी सरकार का भारत के लिए क्या अर्थ है? मोदी किस तरह के व्यक्ति हैं? भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और विदेशी निवेशकों के नये अवसरों के संदर्भ में इसके क्या मायने हैं?

लेकिन इसके साथ चिंताएं भी हैं. कई लोगों ने मुझसे जानना चाहा कि भारतीय गणतंत्र के मूलाधारों में एक सामाजिक सर्वसहमति पर क्या प्रभाव पड़ेगा. क्या सदियों पुराना कोमलता से बुना गया बहुलवादी भारतीय परिदृश्य बिखर जायेगा? क्या अलग-अलग धर्मो के लोगों के बीच तनाव और बढ़ जायेगा? क्या भारतीय जनता पार्टी त्वरा के साथ अपने हिंदुत्व के एजेंडे पर चलेगी, और अगर ऐसा होता है, तो इसके परिणाम क्या होंगे? संघ परिवार के उग्र सांप्रदायिक तत्वों से भाजपा कैसे निपटेगी? ‘लव जेहाद’ जैसे अभियान की सच्चाई क्या है? क्या संघ परिवार का ‘नैतिक’ ब्रिगेड उत्पात मचाता रहेगा? क्या हिंदी पूरे देश पर थोप दी जायेगी? क्या संस्कृत पढ़ना अब अनिवार्य हो जायेगा, और भारतीय इस धर्माज्ञा पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे? मांस पर पाबंदी की आशंका से जुड़े घिसे-पिटे सवाल भी किये गये थे.

इन सवालों का जवाब देते हुए मैं इस बुनियादी सिद्धांत का पालन कर रहा था कि आंतरिक राजनीतिक मतभेद देश के भीतर ही अभिव्यक्त किये जाने चाहिए. उदाहरण के लिए, योग के प्रचार के लिए अलग मंत्रलय बनाने के सवालों के जवाब में मैंने कहा कि योग भारत की महत्त्वपूर्ण सभ्यतागत थाती है, और इसे देश के विद्यालयों और विदेशों में लोकप्रिय बनाने की कोशिश अच्छी पहल है. साथ ही, मैंने यह भी कहा कि मुङो पूरा विश्वास है कि योग को संकीर्ण धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं देखा जायेगा और न ही इसका उपयोग सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया जायेगा.

मेरा केंद्रीय अनुभव यह रहा है कि भारत पर गंभीरता से नजर रखनेवाले बहुत से विदेशियों के लिए भारत का मतलब सिर्फ वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम या आर्थिक नीतियों से जुड़ा हुआ नहीं है. उनकी नजर में भारत एक सभ्यता है, जहां अनगिनत तार और चमकदार विविधताएं हैं, यहां एक अरब से अधिक आबादी है, जिसकी व्यावहारिकता प्रशंसनीय भी है और दुनिया के अन्य विविधतापूर्ण लोकतांत्रिक समाजों के लिए एक कसौटी भी है. इस उल्लेखनीय समन्वयात्मक इकाई के साथ छेड़-छाड़ का कोई प्रयास बड़ा अनिष्टकारी होगा, जिनमें बहुत से जाने-माने राजनीतिशास्त्री, अर्थशास्त्री और कॉरपोरेट जगत के खिलाड़ी शामिल हैं. जब हाल ही में दिल्ली में आयोजित विश्व हिंदू कांग्रेस में विश्व हिंदू परिषद् के वरिष्ठ नेता अशोक सिंघल ने कहा कि भारत में 800 वर्षो के बाद हिंदू शासन कायम हुआ है, तो इससे न सिर्फ भारत में, बल्कि विदेशों में भी घबराहट हो सकती है.

दूसरा मुद्दा जो लोगों के मन में था, वह है चीन का प्रादुर्भाव, और भारत-चीन संबंध की मौजूदा स्थिति. निश्चित रूप से चीन भौगोलिक क्षेत्र, सकल घरेलू उत्पादन और सैन्य क्षमता के हिसाब से भारत से बड़ी शक्ति है. आज यह दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है, तथा इस वर्ष के अंत तक क्रय समतुल्यता क्षमता की दृष्टि से वह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका से आगे निकल जायेगा. न सिर्फ एशिया में, बल्कि वैश्विक मंच पर भी चीन और भारत को दुनिया में नये सितारों के रूप में देखा जाता है. तथ्य यह है कि दोनों देशों के अनसुलङो सीमा-विवाद और सीमा पर छिट-पुट झड़पें इन दोनों एशियाई महाशक्तियों के बीच जारी प्रतिद्वंद्विता के आंशिक प्रमाण के रूप में देखी जाती रही हैं.

मेरे विचार में, अपने इतिहास के कारण यूरोप इन देशों के आगे बढ़ने की प्रक्रिया को आक्रामकता या प्रतिद्वंद्विता के नजरिये से देखता है. लेकिन, यूरोप यूरोपीय संघ के रूप में राजनीतिक और आर्थिक सीमाओं को पार कर दुनिया के सबसे बड़े और शक्तिशाली राष्ट्र-समूह बनाने में भी कामयाब हुआ है. इस संदर्भ में पूछे गये प्रश्नों का एक आशय यह था कि क्या चीन और भारत वैश्विक स्थिरता में कोई योगदान करेंगे, या फिर वर्चस्व के लिए चल रही उनकी परस्पर होड़ दुनिया को अस्थिर करने का एक कारण बनेगी. चीन को वे आक्रामक और बढ़ती शक्ति के रूप में देख रहे थे, लेकिन भारत की ताकत, जिनमें सबसे प्रमुख लोकतांत्रिक व्यवस्था है, का भी उल्लेख किया जाता था.

भारत में हम अकसर अपनी सीमित राजनीति में व्यस्त रहते हैं. हम भूल जाते हैं कि दुनिया भी हमें देख रही है, और समय के साथ उसकी दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. यह पर्यवेक्षण साधारण लोगों के जेहन में भी है. इस निरंतर मूल्यांकन के कारण हमें ठहर कर सोचना चाहिए, और हमें अपने काम-काज का तात्कालिक राजनीतिक दावं-पेंचों से ऊपर उठ कर आकलन करना चाहिए. आंतरिक राजनीति के उठा-पटक से कहीं अधिक चीजें दावं पर हैं. सबसे पहले तो भारत की परिभाषा और इसके मायने की छवि और सारतत्व सामने हैं. संचार क्रांति की वजह से हम पहले से कहीं अधिक स्पष्टता के साथ दुनिया के सामने खड़े हैं. और, कभी-कभार, अपने बारे में अपनी ही गढ़ी हुई परिकल्पनाओं के दायरे से बाहर जाकर हमारी सीमाओं के परे उम्मीदों और चिंताओं से भी हमें रू-ब-रू होना चाहिए.

पवन के वर्मा

सांसद एवं पूर्व प्रशासक

pavankvarma1953@gmail.com

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