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त्रिकोणीय राजनीतिक संघर्ष

।। मनीषा प्रियम सहाय ।।(राजनीतिक विश्लेषक)– इस गंठबंधन के टूटने के बाद नीतीश कुमार जहां मुसलिम मतों पर सीधी दावेदारी कर सकेंगे, वहीं भाजपा यादव मतों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करेगी. – बिहार में बदलते राजनीतिक हालात पर संजय कुमार के चुनावी गणित के आकलन (20 जून के प्रभात खबर में प्रकाशित) के […]

।। मनीषा प्रियम सहाय ।।
(राजनीतिक विश्लेषक)
– इस गंठबंधन के टूटने के बाद नीतीश कुमार जहां मुसलिम मतों पर सीधी दावेदारी कर सकेंगे, वहीं भाजपा यादव मतों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करेगी. –

बिहार में बदलते राजनीतिक हालात पर संजय कुमार के चुनावी गणित के आकलन (20 जून के प्रभात खबर में प्रकाशित) के आधार से मैं सहमत नहीं हूं. नये राजनीतिक समीकरणों का आकलन करने में यह महत्वपूर्ण है कि चुनाव के विश्लेषण को केवल नफा-नुकसान के समीकरण पर नहीं आंका जाये.

पिछले चुनाव में कहां प्रतिस्पर्धा सीधी थी और किसका मत प्रतिशत कितना था, इससे हम नतीजों का सतही आकलन ही कर सकते हैं. इस परिदृश्य से राजनीतिक प्रक्रियाओं का अनुमान लगा पाना संभव नहीं है. चुनाव में हार-जीत के नतीजे केवल समीकरणों की देन नहीं होते, बल्कि एक राजनीतिक प्रक्रिया की उपज होते हैं.

यह समझना महत्वपूर्ण है कि आखिर भाजपा-जदयू गंठबंधन टूटने का अभिमत बनाने वालों पर क्या असर होगा? विशेष तौर पर तब, जब बिहार विधानसभा चुनाव में दो साल से अधिक का समय है. इस दौरान राजनीतिक अभिमत बनाने वाले नेताओं की भूमिका महत्वपूर्ण होनेवाली है.

यह राजनीतिक अनिश्चितता का समय नहीं है. यह गहन राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और परिवर्तन का समय है. इस विश्लेषण में मैं कुछ प्रतिस्पर्धा के आयाम, जिसका बिहार के विकास की राजनीति पर और अंतत: चुनावी राजनीति पर क्या असर होगा, इन तीन मुद्दों पर अपना तर्क पेश करना चाहती हूं. यह समझना जरूरी है कि गंठबंधन टूटने की बात सिर्फ भाजपा-जदयू की बात नहीं थी. इसमें तीन दल थे. इसका असर भी त्रिकोणीय है. जदयू ने आज भले ही नरेंद्र मोदी का हवाला देकर गंठबंधन तोड़ने की बात की, लेकिन पिछले 17 साल से जदयू-भाजपा के साथ रहने का एक ही लक्ष्य था, लालू यादव के जनाधार में सेंध लगाना.

2002 में भाजपा ने जदयू से दोगुने विधायक होने के बाद भी सदन में विरोधी दल के नेता की कुर्सी नीतीश कुमार को दे दी. तभी से स्पष्ट था कि गंठबंधन में बड़ा भाई होने के बाद भी भाजपा लालू विरोध के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार है. यहां गौरतलब है कि नेता विपक्ष का पद संविधान के मुताबिक कैबिनेट मंत्री के दरजे के बराबर होता है. आज गंठबंधन टूटने के बाद राजनीतिक एहसास होता है कि जदयू, भाजपा, यहां तक कि कुछ राजद के विधायकों के बीच यह साझा समझदारी है कि लालू प्रसाद को चुनावी राजनीति से बाहर रखा जाये.

इस गंठबंधन के टूटने के बाद नीतीश कुमार जहां मुसलिम मतों पर सीधी दावेदारी कर सकेंगे, वहीं भाजपा यादव मतों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करेगी. गंठबंधन टूटने से सत्ता का हस्तांतरण तो नहीं हुआ, लेकिन राजद के पास से विरोधी दल के नेता की कुर्सी चली गयी. अब भाजपा के नंदकिशोर यादव विरोधी दल के नेता हैं.

यह तो हुई जातिगत समीकरण की बात, जिसमें जदयू व भाजपा लालू का विरोध अलग-अलग तरीके से करेंगे. राजद, जदयू के बड़े नेताओं के निकट आने की संभावना है. यह इसलिए कि आज बिहार विधानसभा में कांग्रेस को छोड़ सभी दलों के अग्रणी नेता आपातकाल के दौरान साथ-साथ लड़े, जेल गये थे. साथ ही समाजवादी पृष्ठभूमि के कारण इनमें खासी नजदीकियां हैं और ऐतिहासिक जड़ों से वे एक पारिवार के लगते हैं.

जदयू और राजद में विशेष भिन्नता नहीं है और इधर से उधर जाने की यह प्रक्रिया कोई आया राम गया राम जैसी नहीं होनेवाली है. राजद की परिवर्तन रैली में लालू के दोनों पुत्रों का आगे की कतार में बैठना और विधानसभा में विपक्षी दल के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी का पीछे बैठाया जाना कुछ संकेत देता है. नेता कुछ निर्णय भविष्य को देख कर लेते हैं.

परिवर्तन से कोई राजनीतिक नेता डरता नहीं है और इसी से भविष्योन्मुखी राजनीति का निर्माण होता है. 2012 में उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी की इलाहाबाद रैली में उन्हें देखकर एक बुजुर्ग महिला ने कहा था कि पंडित जवाहर लाल नेहरू के पोते के पायजामे में भी इतनी धूल लग जायेगी, ऐसा कभी नहीं सोचा था.

यानी चुनावी प्रक्रिया में परिवर्तन की इतनी संभावनाएं हैं कि केवल 2010 के चुनाव में उभरे नतीजों के आधार पर या जातिगत मतों के आधार पर भविष्य को अनिश्चित बताना सुघड़ राजनीतिक समझ नहीं है. मेरे अनुसार सबसे पहले तो स्पष्ट अनुमान करना चाहिए कि गंठबंधन टूटने के बाद राजद के कौन-कौन से नेता जदयू की ओर जा सकते हैं?
विधानसभा में नीतीश के भाषण को यदि ध्यान से सुना जाये तो उन्होंने जदयू में राजद के नेताओं को खींचने के लिए विचारधारा के स्तर पर पहल तो कर ही दी है.

सदन के पटल पर जिस अधिनायकवाद की आलोचना नीतीश ने की उस पर किसी का नाम नहीं खुदा था. यद्यपि उनका सीधा इशारा एक समीपवर्तीय नेता नरेंद्र मोदी की ओर था, लेकिन बिहार में इसका ऐतिहासिक संदर्भ इंदिरा गांधी और इमरजेंसी से जुड़ा है.
नीतीश ने पिछड़ों-अति पिछड़ों की राजनीति पर भी जो टिप्पणी की, वह दोधारी तलवार थी.

उन्होंने मूक रूप से मोदी के पिछड़ी जाति के होने के प्रचार पर प्रहार किया और कहा कि किसी जाति का होने से ही व्यक्ति पिछड़ों के हक की लड़ाई लड़नेवाला नेता नहीं बनता. यह सीधा इशारा है कि यदि पिछड़ी जातियों का मत विभाजन हो, तो वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर पिछड़ी जातियों के लिए प्रगतिशील राजनीति करने वाले दलों को वोट करें. यहां उन्होंने मधु लिमये, राजनारायण और चरण सिंह जैसे शीर्ष समाजवादी नेताओं का नाम लिया जिनका इमरजेंसी और बिहार से खासा संबंध है.

यानी विधानसभा के फ्लोर पर नीतीश का खुला निमंत्रण राजद के नेताओं की ओर था, जो पिछड़ी जातियों के लिए प्रगतिशील राजनीति करते हैं. चारा घोटाले में संभावित निर्णय आने पर अगर ऐसी स्थिति बनती है कि राजद के नेता अभियुक्त करार दिये जायें, तो राजद का पूर्ण रूप से जदयू में विलय हो जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

यदि ऐसा हुआ तो आगामी 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को 2010 के विधानसभा चुनाव के पैमाने पर नहीं आंका जा सकता है.
इस पूरी परिचर्चा में मैं जिस बिंदु पर ध्यान दिलाना चाहती हूं, वह है- आंकड़ाविद् जब भविष्य की थाह लेने के लिए पुराने परिणामों पर नजरें टिकाते हैं, तो राजनीतिक परिवर्तन के बिंदुओं को पूरी तरह नहीं जोड़ पाते.

इस विवेचना में यह समझना महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक दल और नेता चुनाव आने के पहले कैसी विचारधारा की पहल करते हैं. यह भी कि यद्यपि भाजपा भी परंपरागत रूप से शहरी क्षेत्रों में पनपनेवाली अगड़ी जातियों की पार्टी रही है, लेकिन गठबंधन के टूटने के बाद उसे नीतीश विरोधी मतों को भी आकर्षित करने की उम्मीद है. अंत में मैं यही कहूंगी कि बिहार का राजनीतिक भविष्य अनिश्चितता का नहीं, बल्कि त्रिकोणीय संघर्ष का है. और मैडिसन जैसे राजनीतिक विचारकों का यह मानना है कि ऐसी प्रतिस्पर्धा लोकतंत्र का स्वास्थ्य बरकरार रखने में सहायक है.

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