आज जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है. मौसम का चक्र बदल रहा है. कभी बिन मौसम भारी बरसात, तो कभी बारिश के मौसम में सूखा. कभी असमय भारी बर्फबारी, तो कभी धुंध. धरती गर्म हो रही है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं. जलस्तर बढ़ने के कारण समुद्र से घिरे द्वीपीय इलाकों के डूबने का खतरा पैदा हो रहा है.
इनके सबकी वजह है बढ़ता प्रदूषण और पर्यावरण का विनाश. ऐसा नहीं है कि हम लोग इन वजहों को जानते-समझते नहीं है. पर जान कर भी अनजान या कहें कि असहाय बने हुए हैं. क्योंकि पर्यावरण पर यह संकट उस शै की वजह से पैदा हुआ जिसे हम ‘विकास’ कहते हैं. हम इस विकास के कैदी बन चुके हैं. इसके गुलाम बन चुके हैं. क्या विकास का कोई वैकल्पिक रास्ता हो सकता है? आखिर यह धरती कैसे बचेगी? इन्हीं सवालों को केंद्र में रख कर एलएस कॉलेज, मुजफ्फरपुर में समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ने व्याख्यान दिया. आयोजन किया गांधी शांति प्रतिष्ठान ने. मौका था महात्मा गांधी के मुजफ्फरपुर आगमन की 97वीं वर्षगांठ का.
प्रकृति की निर्माण, क्षरण व विनाश की एक अपनी प्रक्रिया और गति है. इसमें निर्माण और विनाश की प्रक्रिया निरंतर अरबों वर्षो से, और हमारे समय के सीमित हिसाब से अनंत काल से चलती आयी है. मनुष्य और उसका सीमित जैविक परिवेश बदलाव की इस अथाह धारा की सतह पर लघु लहरियां भर हैं. धरती की सतह पर फैले जैव जगत की यह विशिष्टता है कि इसकी असंख्य प्रजातियां (जीव-जन्तु व वनस्पति) अपने पड़ोस के संसाधनों का एक सीमा के भीतर उपयोग कर जिंदा रह सकती हैं और मितव्ययिता से अपनी प्रजाति का भविष्य सुनिश्चित कर सकती हैं. मनुष्यों की भी, जिसे हम अहंकारवश दूसरी प्रजातियों से श्रेष्ठ मानते हैं, एक ही एक प्रजाति है. शायद मछलियां व मच्छर भी इस तरह अपने को श्रेष्ठ मानते हों, पर उनसे किसी संवाद चैनल के अभाव में, हम इसके बारे में कुछ भी नहीं कह सकते हैं.
डार्विन के अध्ययनों से हम जानते हैं कि धरती पर विभिन्न प्रजातियों का अस्तित्व अनुकूलन प्रक्रिया से कायम रहा है. अधिकांश प्रजातियों में यह अनुकूलन उनके जीन (अनुवांशिकी) के स्तर पर होता रहा है. इस पर उनका वश नहीं चलता. या तो उनके शरीर या व्यवहार को निर्धारित करनेवाले जीन में परिवेश के अनुकूल बनाने वाले गुण का विकास होता है या उनका अस्तित्व मिट जाता है. मनुष्य में अनुकूलन की एक दूसरी क्षमता भी होती है. यह क्षमता उनकी संस्कृति से आती है. इसके जरिये वे अपनी बनावट और व्यवहार में वैसे बदलाव ला सकते हैं, जो अनुवांशिकी में उपलब्ध नहीं हैं, पर उनके जीवन के लिए आवश्वयक है. मसलन अत्यधिक शीत से बचने के लिए जैसे पक्षी के पंख या भेड़ जैसे पशु के घने बालों अथवा रूई की रजाइयों या चमड़े के कपड़ों या फिर आग जला कर खुद को बचा लेते हैं. इसी तरह वे प्रकृति से प्राप्त अनेक अखाद्य वस्तुओं को पाकशास्त्र से या कभी-कभी रासायनिक प्रक्रिया से खाद्य वस्तुओं में बदल डालते हैं, लेकिन यहां भी एक सीमा है. रसायनशास्त्र हमें बताता है कि हमारे भोजन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा काबरेहाइड्रेट चाहे चीनी हो या चावल, मूलत: कोयला (कार्बन) और पानी का यौगिक है. धरती के नीचे अरबों टन कोयला पड़ा है और पानी भी निश्चित मात्र में उपलब्ध है, लेकिन हम अपने सारे विज्ञान के बावजूद एक ग्राम कोयले को भी किसी खाद्य पदार्थ (काबरेहाइड्रेट) में नहीं बदल सकते. अंतत: हमें अपना भोजन, पेड़-पौधों, उनके द्वारा किये जानेवाले प्रकाश संश्लेषण और खाद्य श्रृंखला से ही प्राप्त होता है. इसी प्रक्रिया से हमें ऑक्सीजन या प्राण वायु भी प्राप्त होती है.
वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि चार अरब साल पहले जब धरती पर जीवाणुओं का अस्तित्व नहीं था. धरती का ताप 290 डिग्री सेल्सियस था. वायु में कार्बन डाइआक्साइड की मात्र 98 फीसदी, नाइट्रोजन 1.9 फीसदी और ऑक्सीजन बस नाम मात्र की थी. अति सूक्ष्म प्राथमिक जीवाणुओं की बदौलत ही आज कार्बन ड्राइक्साइड 0.03 फीसदी, नाइट्रोजन 78 फीसदी व ऑक्सीजन 21 फीसदी हो गयी है. आज भी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया से धरती का हरा आवरण है. विशाल वृक्षों के जंगल, हमें ऑक्सीजन देकर जिंदा रखते हैं. इसका जिक्र इसलिए किया गया है, ताकि हम जब विकास की बात करते हैं, तो यह ध्यान में रखें कि इस जीवनदायी हरित अवरण पर इसका कैसा प्रभाव पड़ता है.
हम सभी भौतिक शास्त्र के एक नियम से बंधे हैं. जिसे भौतिक शास्त्री ‘लॉ ऑफ कंजरवेशन’ (संरक्षण का नियम) कहते हैं. यानी कि समग्र ऊर्जा और पदार्थ की मात्र में हम कोई इजाफा नहीं कर सकते. मतलब हम इसका रूपांतरण तो कर सकते हैं, लेकिन अपनी ओर से रत्ती भर भी सृजन नहीं कर सकते हैं. मनुष्य की त्रसदी यही रही है कि कुछ सीमित सफलता से आशान्वित हो कर वह अपने को ‘परिवर्तक’ की जगह पर ‘निर्माता’ होने का दंभ करने लगा है. सभ्यता के आरंभ से आज तक मनुष्य इसी भ्रम से विकास और विनाश के चक्र में फंसता रहा है. सभ्यता का जितना ही उत्कर्ष होता है- यहां उत्कर्ष का अर्थ कुछ खास क्षमताओं में इजाफा है- यह भ्रम भी उतना ही व्यापक बनता जाता है और इससे हम विनाश की ओर बढ़ते हैं. हमारे मिथकों व महाकाव्यों में, पराक्रमी असुरों की चमत्कारी उपलब्धियों की कथा हमारी अपनी कल्पना की ही अभिव्यक्ति है, लेकिन इन मिथकों में बार-बार असुरों का विनाश अपनी ही अत्यांतिक कल्पना से भयभीत मनुष्य के आंतरिक निषेध की अभिव्यक्ति ही है. फिर भी हमने इनसे जीवन के लिए आवश्यक सबक लेना जरूरी नहीं समझा है.
सभ्यताओं का इतिहास अलग-अलग कालखंड में शक्ति विस्तार, उत्पीड़न व विकास के इसी चक्र को दुहराता रहा है. सुमेर, मिस्र, यूनान, रोम आदि के उत्कर्ष और हृास से हम परिचित हैं. इन सबमें प्रभावशाली समूहों द्वारा आक्रमण कर दूसरे समूहों को गुलाम बना अपनी शान-शौकत में इजाफा किया गया, लेकिन वर्चस्व और संसाधन के हृास से ये शासक समूह और इनकी सभ्यता नष्ट हो गयी. हम अक्सर गर्व से गाते हैं..
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गये जहां से।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा।।
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जमां हमारा।।
शायद इस दावे में अतिशयोक्ति के साथ कुछ सच्चई भी है, क्योंकि हमने सुमेर, मिस्र आदि की तर्ज पर बाहरी गुलामों के बूते अपनी समृद्धि बनाने की कोशिश नहीं की और इसलिए कुछ उदात्त मूल्यों का संरक्षण कर पाये हैं. बुद्ध और कबीर से लेकर गांधी तक में भौतिक ऐश्वर्य को जीवन का अत्यांतिक मूल्य मान कर चलने का निषेध हमारे यहां एक हद तक प्रेरक रहा है.
पश्चिम की आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था ने- प्रथम दृष्टया मानव श्रम के शोषण (गुलामी की व्यवस्था) की जगह कोयला, पेट्रोल एवं प्राकृतिक गैस चालित मशीनों से अपनी माया नगरी का विस्तार किया है, लेकिन गहराई से देखने पर यह इतना शोषण मुक्त नहीं दिखायी देता. हम इंजनों और मशीन बनाने वाले अयस्कों (कच्चे माल) पर नजर डालते हैं , तो दिल दहलाने वाला नजारा सामने आता है. तेल और कोयला उत्पादक क्षेत्रों की आबादी का बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है. कोयला खदानों के इलाके में जहां कभी हरे-भरे वन प्रदेश और खेत-खलिहान थे. बंजर खड्डों के बीहड़ बना दिये जाते हैं. वनवासी और आदिवासी, जिनके यहां लौह अयस्क और बॉक्साइट (अल्युमिनियम का अयस्क) की खुदाई होती है, अपना घर-गांव छोड़ बाहर जाने को विवश होते हैं. यूरेनियम की खुदाई के क्षेत्र में परमाणु विकिरण से क्षत-विक्षत और विकलांग लोग चारों ओर दिखायी देते हैं. अंतत: इन क्षेत्रों के लोग पारंपरिक आजीविका की आधार भूमि से विस्थापित होकर नगर और कस्बों में ठेला लगानेवाले या रिक्शा चालक बनने को मजबूर होते हैं या कहीं ईंट भट्ठों में जाकर खटते हैं.
यातायात-व्यवस्था के विस्तार के लिए चौड़ी सड़कें और रेल मार्गो का बड़े पैमाने पर निर्माण होता है, जिसके लिए वनों और बगानों की कटाई तथा कृषि भूमि का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण अनिवार्य हो जाता है. इसमें बड़े पैमाने पर वृक्षों की कटाई होती है. उद्योगों और औद्योगिक नगरों के लिए बिजली की आपूर्ति के लिए बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं बनायी जाती हैं. इसके लिए नदियों पर ऊंचे बांध बनाये जाते हैं. मसलन- नर्मदा का सरदार सरोवर बांध. इससे हजारों गांवों, जहां खेत, जंगल और लोगों के आवास जलमग्न हो गये, के वाशिंदे आजीविका के लिए दर-दर भटकते रहे हैं. चौड़ी सड़कों के निर्माण में कृषि भूमि और बाग-बगीचों की कैसी निर्मम बर्बादी होती है. इसका एक छोटा रूप हम मुजफ्फरपुर से पटना को जोड़नेवाले राजमार्ग पर आसानी से देख सकते हैं, क्योंकि ये हमारे पड़ोस में है.
वृक्षों की कटाई, कारों व कारखानों से होनेवाले उत्सजर्न से पर्यावरण के बढ़ते ताप की चर्चा तो हर दिन मीडिया में छायी रहती है. यह बात दीगर है कि हम विकास के नाम पर इसको नजरअंदाज करते हैं, लेकिन इसके परिणाम को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. हम विकास जीवन में रफ्तार लाने के लिए करना चाहते हैं, लेकिन धुंध से हवाई सेवायें रद्द हो जाती हैं. कारों की रफ्तार साइकिल से कम या पैदल चलनेवालों जैसी हो जाती है. रेलवे का टाइम टेबुल बेकार हो जाता है, क्योंकि धुंध के कारण गाड़ियां मौसम के मिजाज के हिसाब से बीस घंटे तक लेट होती हैं. यह हमारी नियति नहीं है. लंदन का विख्यात हीथ्रो एयरपोर्ट भी फ्लाइट रद्द करता रहता है.
पर्यावरणविद् हमें कही अधिक भयंकर प्राकृतिक आपदा की चेतावनी देते रहे हैं. इनमें कुछ ध्रुव प्रदेशों के बर्फ के पिघलने से, जो धरती के बढ़ते ताप का परिणाम होगा- समुद्र तट के अनेक भू-भागों का जलमग्न होना, हिमालय के ग्लेशियरों के सिकुड़ जाने से जल में इजाफे के बाद हिमालय से निकलनेवाली नदियों का सूख जाना, अनेक जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियों का लुप्त हो जाना, जो अब तक हमें अपना भोजन प्रदान करती रही हैं. ये ऐसे परिणाम हैं, जो तुरंत हमारी नजर में नहीं आते और हम अब तक प्राप्त हो रही छोटी-मोटी सुविधाओं से संतुष्ट रहते हैं. लेकिन, पिछले कुछ सालों में हमने हिमालय के क्षेत्र में जो पत्थरों की कटाई सड़क बनाने के लिए की या विद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ खोद कर सुरंग (टनेल) बनायीं या पेड़ों की जो अंधाधुंध कटाई हो रही है, उनके परिणाम तो भयावह प्राकृतिक आपदा के रूप में पिछले ही साल हमारे सामने आ गये हैं.
14 जून से 19 जून 2013 के बीच भारी वर्षा से उत्तराखंड के सभी तीर्थ स्थान और उससे संबद्ध आवासीय स्थान नष्ट हो गये. कहा गया कि भारी वर्षा से पहले के सभी रिकार्ड टूट गये, लेकिन इन रिकार्डो से ही ज्ञात होता है कि भारी वर्षा पहले भी होती रही है, लेकिन इतना विनाश पहले कभी नहीं हुआ. तीर्थस्थलों के धर्मशाला, होटलों और मंदिरों के अलावा सबसे अधिक नुकसान उन सिंचाई व विद्युत परियोजनाओं को हुआ है, जिनके निर्माण में इस इलाके में पर्यावरण के साथ ज्यादा से ज्यादा खिलवाड़ हुआ.
केदारनाथ का हजार साल से अधिक पुराना मंदिर क्षतिग्रस्त हो गया. नष्ट हुई परियोजनाओं में सोवला (50 मेगावाट), धौलीगंगा (280 मेगावाट), उरेडा (800 किलोवाट), पैना गाड (5 मेगावाट) और ऐसी अनेक विद्युत परियोजनाएं शामिल हैं. विडंबना है कि हिमालय में जल-धाराओं की स्वाभाविक दिशा बदल कर या सुरंग आदि बना कर उन्हें नयी दिशा देने का काम पनबिजली विकास के लिए ही किया गया था. इन परियोजनाओं के विकास के क्रम में पहाड़ों को लगातार डाइनामाइट लगा कर तोड़ा गया था. यहां के विकास के प्रयासों का सीधा संबंध सामने आये विध्वंस से दिखायी देता है.
लाखों वर्ष में नदियों की धाराएं और पर्वतों के ढलान एक ऐसा रूप ग्रहण कर लेते हैं, जिसमें हवा या पानी के स्वाभाविक प्रवाह से कोई अवरोध नहीं होता और उनमें ऐसे संरचनात्मक स्वरूप का भी विकास हो जाता है कि आकस्मिक रूप से होनेवाले धारा परिवर्तन भी सहज रूप से हटाये जा सकते हैं, जब इनके साथ छेड़छाड़ होती है और अवरोध पैदा किया जाता है, तो विध्वंस की स्थितियां पैदा होती हैं. पर्वतों के स्वाभाविक ढलान या नदियों के अवरोध रहित बहाव के अलावा हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में सुरक्षा का एक बड़ा कारक वहां के वन भी हैं. संसार भर में वन न सिर्फ क्षरण को रोकते हैं, बल्कि पर्यावरण को भी ऐसा बनाते हैं, जिससे वर्षा के लिए अनुकूल स्थिति बनती है. ये बौछारों की सीधी मार से भी धरती को बचाते हैं. वृक्षों की बड़े पैमाने पर कटाई से (जिसके खिलाफ सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में दीर्घकाल तक ‘चिपको आंदोलन’ चला था) जमीन को बांध कर रखनेवाला एक बड़ा कारक चला गया. इससे प्रदूषण का नियंत्रण भी घट गया. विकास के वर्तमान स्वरूप में यह होना ही था. कहा जा सकता है कि पर्यावरण की समस्याएं, जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है, वे तो लोगों को ज्ञात हैं, लेकिन समस्या है क्या? आज की स्थिति में हम कोई दूसरी जीवन पद्धति अपना सकते हैं? अगर हां, तो उस पद्धति का आधार क्या होगा?
दुनिया भर में अब तक जो भी हुआ है. उसे देखते हुए सरल और समतामूलक जीवन ही उन सारी समस्याओं से छुटकारा दिला सकता है, जो प्रचुरता के बावजूद समाज को आक्रांत करती रही हैं. अंतत: हमें सूर्यदेव की शरण में यानी सौर युग में जाना होगा. ऊर्जा संकट के संदर्भ में सौर ऊर्जा और सोलर पैनल जैसे शब्द से हम परिचित हो गये हैं, लेकिन अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि हमारे आसपास फैले वृक्ष और हरियाली तो सोलर पैनल ही हैं. ये बिना हमारे प्रयास या रासायनिक और यांत्रिक हस्तक्षेप के सर्योदय से सूर्यास्त तक सूरज की किरण से ऊर्जा ग्रहण कर प्रकाश संश्लेषण करते रहते हैं. इसके जरिये जल के शैवाल, धरती की घास से लेकर विशाल वट और साल वृक्ष तक अपने पत्ते और तनों को बढ़ाते रहते हैं. इनके पत्ते, फल, फूल से असंख्य कीट, पक्षी और घास एवं पत्ते खानेवाले पशु अपना आहार पाते हैं और फिर इनसे मेढक और मांसभक्षी पक्षी और दूसरे जीवों का आहार आता है. इस फूड चेन को ‘आहार श्रृंखला’ कहा जाता है. मनुष्य भी इस आहार श्रृंखला से आधुनिक औद्योगिक युग से पहले आखेट, कृषि या पशुपालन से अपनी परवरिश करता रहा है.
ये फूड चेन आज भी कायम है और भोजन का मूलाधार आज भी यही है, लेकिन आज हम मानव ने कच्च या ताजा पकाये भोजने की जगह वालमार्ट या ऐसे किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान द्वारा मशीनों से तैयार किये गये डिब्बाबंद वस्तुओं को अपने भोजन का आधार बना लिया है. यह सारी प्रक्रिया व्यापारिक और औद्योगिक बन गयी है और हर खाने वाला पराश्रित है. उसे खाना बाजार से लेना होता है और इसके लिए कहीं किसी के लिए श्रम करके पैसा अजिर्त करना होता है. वह अब अपनी जरूरत का अन्न, कंद मूल नहीं उपजा सकता, न अपनी गाय, भैंस से या अपने पड़ोसी से दूध पा सकता है. वह हर जगह मौद्रिक ताने-बाने में फंसा है. मुद्रा के स्नेत, भारी मात्र में मुद्रा के स्नेत, वे औद्योगिक और व्यावसायिक प्रतिष्ठान हैं, जिन्हें खड़ा करने के लिए संसार भर में विस्थापन और विपन्नता फैलाना अनिवार्य हो जाता है. कुल मिला कर विकास का ढांचा अभिशाप बन गया है.
जब महात्मा गांधी ने इस सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था, तो उनका तात्पर्य यही रहा होगा कि कैसे इस सभ्यता ने आदमी के सरल जीवन को पराश्रित बना उसके स्वावलंबन और स्वाभिमान को नष्ट किया है. महात्मा गांधी की मुजफ्फरपुर से चंपारण की यात्र उनके उस दीर्घकालिक अभियान का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य मनुष्य की आत्मनिर्भरता को वापस लौटाना था. उनके अभियान को याद कर हम सभ्यता पर पुनर्विचार की प्रेरणा लें, तभी ऐसे समागम सार्थक हो सकते हैं. गांधी के चंपारण आंदोलन का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है. नील की खेती लोगों को मूल आवश्यकताओं से अलग कर वैश्विक बाजार व्यवस्था से जोड़ने का प्रयास था. स्वाभाविक था कि इसे विदेशी शासन जोर-जबरदस्ती से किसानों पर लादना चाहता था. आज पहले जैसी व्यवस्था तो नहीं है, लेकिन नील की जगह चीनी उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए आज भी किसानों के चीनी मिल के क्षेत्र में अनेक जगह गुड़ बनाने पर रोक है, जो उनका पारंपरिक व्यवसाय था.