।। जयंत सिन्हा ।।
(आर्थिक व वित्तीय प्रबंधन विशेषज्ञ)
अक्सर मुझसे यह सवाल पूछा जाता है कि कृषि, खनिज और उद्योग की असीम संभावनाओं के बावजूद झारखंड पिछड़ा क्यों है. हमारा झारखंड विकास के कई मापदंडों पर गुजरात से तो क्या, छत्तीसगढ़ से भी बहुत पीछे है. जबकि झारखंड व छत्तीसगढ़ का निर्माण एक साथ हुआ है. दोनों का भूगोल, जनसंख्या और संसाधन भी एक जैसे ही हैं. इस मायने में यह सवाल वाकई जटिल है और इसका जवाब राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दिया जा सकता है. हालांकि, हमारे राज्य के पिछड़ेपन की एक बड़ी वजह यहां का बदहाल राजकोषीय प्रबंधन है, जिसके परिणामस्वरूप यहां सामाजिक और आर्थिक विकास के क्षेत्र में पर्याप्त निवेश नहीं हो सका.
यह निराशाजनक है कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर एक ऐसा राज्य आर्थिक रूप से इतना बदहाल है. और यह स्थिति तब है जब हमें समय-समय पर केंद्र की ओर से पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होते रहते हैं. वर्ष 2013-14 के दौरान राज्य को 49 प्रतिशत बजटीय समर्थन केंद्र की ओर से मिला. यह गुजरात को मिले समर्थन, 23 प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है. यहां तक कि हमारी जैसी परिस्थिति वाले छत्तीसगढ़ को केंद्र से मात्र 37 प्रतिशत का ही बजटीय समर्थन मिला.
इसे प्रति व्यक्ति के लिहाज से देखें तो झारखंड के हर व्यक्ति को 5844 रुपये मिले, जबकि गुजरात के लिए यह आंकड़ा महज 3216 रुपये रहा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि हमारा खर्च काफी हद तक केंद्र सरकार की मदद और अनुदान पर निर्भर करता है.
इन परिस्थितियों में लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि इस साल (2014-15) के बजट में कांग्रेस-झामुमो सरकार ने पिछले साल की तुलना में खर्च की राशि में 11,890 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी कर दी. अगर हम यह मान कर चलें कि बजटीय समर्थन और राज्य का सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) पंचवर्षीय चक्रवृद्धीय सालाना वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ते हैं, तब भी सरकार पिछले साल की तुलना में 7,827 करोड़ रुपये की ही अतिरिक्त उगाही कर पायेगी.
ऐसे में यह साफ है कि सरकार 4063 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च करना चाहती है. इससे राजकोषीय घाटा जीएसडीपी का 4.4 प्रतिशत होगा, जो साफ तौर पर इस साल के बजटीय लक्ष्य 2.3 प्रतिशत से ज्यादा है. यह 2.9 प्रतिशत के एफआरबीएम (राजकोषीय जिम्मेदारी और बजटीय प्रबंधन) लक्ष्य का उल्लंघन होगा और इस तरह राजकोषीय घाटे के खतरे के निशान को पार कर जायेगा. इतने बड़े घाटे से पार पाने और अपना खर्च पूरा करने के लिए राज्य सरकार को और 9400 करोड़ रुपये का कर्ज लेना पड़ेगा. इससे साफ है कि कांग्रेस-झामुमो सरकार हमारे राजकोषीय संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंधन नहीं कर पा रही है.
इसके अलावा, अगर हम राज्य की सरकारी प्रतिभूतियों की परिपक्वता के समय को देखें, तो हम पाते हैं कि झारखंड को अगले पांच सालों में 3191 करोड़ रुपये लौटाने हैं. यह छत्तीसगढ़ की तुलना में इसी अवधि में अदा की जानेवाली कर्ज की राशि, 870 करोड़ रुपये से कई गुणा ज्यादा है.
अगर वर्तमान सरकार की यह राजकोषीय फिजूलखर्ची जारी रही, तो हमें भुगतान से अधिक कर्ज ले रहे होंगे. जहां एक तरफ हमें अपने बढ़ते खर्चों से तालमेल बिठाने के लिए ज्यादा कर्ज लेने की जरूरत पड़ेगी, वहीं जल्दी से जल्दी कर्ज की भारी राशि चुकाने की भी बाध्यता रहेगी. ऐसी भी संभावना है कि झारखंड बढ़ते कर्ज के एक दुष्चक्र में फंसता चला जाये.
झारखंड की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह राज्य पर्याप्त राजकोषीय संसाधनों का सृजन नहीं कर पा रहा है. झारखंड के लिए कुल राजस्व में राज्य के राजस्व का हिस्सा लगातार कम होता जा रहा है. वित्त वर्ष 2014-15 में अपने संसाधनों की बदौलत 57 प्रतिशत राजस्व पाने का लक्ष्य रखनेवाले छत्तीसगढ़ की तुलना में झारखंड का लक्ष्य महज 43 प्रतिशत है. वहीं गुजरात, जो एक विकसित राज्य है, ने अपने संसाधनों के बल पर 78 प्रतिशत के राजस्व का लक्ष्य रखा है. ऐसे में हमें कुल राजस्व में राज्य के राजस्व की हिस्सेदारी बढ़ाने के फौरी प्रयास करने होंगे. इस समस्या का हल ढूंढे बिना हमारे राज्य की वित्तीय स्थिति ऐसे ही अनिश्चित रहेगी और सामाजिक विकास के क्षेत्र में होनेवाले खर्च कम होंगे.
कुल मिला कर कहें तो राज्य को एक अदद स्थिर सरकार की जरूरत है, जो विवेकपूर्ण राजकोषीय प्रबंधन नीतियों पर चले और जिसका लक्ष्य तेज गति से आर्थिक विकास हो. हमें आर्थिक विकास को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि हमारे राज्य का सकल घरेलू उत्पाद बढ़े और सामाजिक कल्याण पर खर्च करने के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधन सृजित किये जा सकें.
राज्य का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ाने के लिए सरकार को बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जनोपयोगी सुविधाएं बेहतर ढंग से मुहैया करानी होंगी. राज्य सरकार को संतुलित औद्योगीकरण और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए माकूल नीतियां अख्तियार करनी होंगी. भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को आसान बनाकर, शहरी क्षेत्रों का विकास कर, खनन गतिविधियां और कृषि उपज बढ़ाकर और राज्य को सच में व्यवसाय के लायक बनाकर ही यह सब संभव हो सकेगा.
यकीन मानिए, विकास पर आधारित ऐसी नीतियों का असर आर्थिक क्षेत्र पर तो होगा ही, सामाजिक विकास भी इससे अछूता नहीं रहेगा. उदाहरण के तौर पर गुजरात में ऐसी नीतियां गरीबी कम करने के साथ-साथ जन स्वास्थ्य और शिक्षा का स्तर सुधारने में भी मददगार हुई हैं. इसलिए ऐसी नीतियों का बड़ा असर न सिर्फ राज्य के लोगों की आमदनी का स्तर बढ़ायेगा, बल्कि उनका जीवन स्तर सुधारने की दिशा में भी मददगार होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं. लेखक हजारीबाग के सांसद हैं.)